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________________ ५२० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ सर्वविशुद्धज्ञान नाटयित्वा प्रलपनमखिलाज्ञानसंचेतनायाः । पूर्णं कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसंचेतनां स्वां सानंदं नाटयंतः प्रशमरसमितः सर्वकालं पिबंतु ॥ २३३ ॥ इतः पदार्थ - प्रथनावगुंठिता विना कृतेरेकमनाकुलं ज्वलत् । समस्तवस्तुव्यतिरेकनिश्चयात् विवेचितं ज्ञानमिहावतिष्ठते ॥ २३४ ॥ ३८७ ॥ ३८८ ॥ ३८९ ॥ त्ररचनारचितशास्त्रैः शब्दादिपंचेंद्रिय विषयप्रभृतिपरद्रव्यैश्च शून्यमपि रागादिविकल्पोपाधिरहितं निश्चयकर अपने आत्मस्वरूपसे ही तृप्त है अन्य कुछ तृष्णा नहीं करता वह पुरुष वर्त - मानकाल में सुंदर ( रमण करने योग्य ) तथा आगामी कालमें जिनका फल सुंदर ( रमणे योग्य ) ऐसे कर्मोंसे रहित स्वाधीन सुखमयी अन्यस्वरूप दशाको प्राप्त होता है । जो दशा संसार अवस्थामें पहले कभी नहीं हुई थी ॥ भावार्थ- - इस ज्ञानचेतनाकी भावनका यह फल है । इसकी भावना से अत्यंत तृप्ति रहती है अन्य तृष्णा नहीं रहती । और आगामी कालमें केवल ज्ञान उपार्जनकर सब कर्मोंसे रहित मोक्ष अवस्थाको प्राप्त होता है || अब उपदेश करते हैं कि ऐसे कर्मचेतना और कर्मफलचेतना के त्यागकी भावनाकर अज्ञान चेतनाके अभावको प्रगट नचाके ज्ञानचेतनाके स्वभावको पूर्णकर उसको नचाते हुए ज्ञानीजन सदाकाल आनंदरूप रहैं | इसी अर्थका कलशरूप २३३ वां काव्य है— अत्यंतं इत्यादि । अर्थ - ज्ञानीजन हैं वे कर्मसे तथा कर्मके फलसे अत्यंत विरक्त भावनाको निरंतर भायकर और समस्त अज्ञान चेतनाके नाशको अच्छी तरह नृत्य कराके अपने निजरससे प्राप्त स्वभावरूप जो ज्ञानचेतना उसको आनंदसहित जैसे हो उस तरह पूर्णकर नृत्य कराते हुए यहांसे आगे कर्मके अभावरूप आत्मीकरसरूप अमृतरस उसको सदाकाल पीवें । यह ज्ञानीजनोंको प्रेरणा है ॥ भावार्थपहले तो तीन कालसंबंधी कर्मका कर्तापनारूप कर्मचेतनाके उनचास भंगरूप त्यागकी भावना कराई पीछे एकसौ अड़तालीस कर्मप्रकृतियोंका उदयरूप कर्मफलके त्यागकी भावना कराई । ऐसे अज्ञानचेतनाका प्रलय कराके ज्ञानचेतनामें प्रवर्तनेका उपदेश किया है । यह ज्ञान चेतना सदा आनंदरूप अपने स्वभावका अनुभवरूप है । उसको ज्ञानीजन ! सदा भोगो यह श्रीगुरुओंका उपदेश है | यह सर्व विशुद्ध ज्ञानका अधिकार है इसलिये ज्ञानको कर्ताभोक्तापने से भिन्न दिखलाया अब अन्य द्रव्य और अन्य द्रव्योंके भावोंसे ज्ञानको जुदा दिखलाते हैं, उसकी सूचनिकाका २३४ वां काव्य है - इतः पदार्थ इत्यादि । अर्थ-यहांसे आगे इस ज्ञानके अधिकारमें सब वस्तुओंसे भिन्नपनेके निश्चयसे जुदा किया जो ज्ञान वह निश्चल तिष्ठता है | कैसा हुआ तिष्ठता है ? पदार्थके विस्तारको ज्ञेयज्ञानसंबंध करके एकसा दिखलानेसे हुई जो अनेकरूप कर्तृत्वभावरूप क्रिया उसके विना एक ज्ञानक्रियामात्र सब आकुलतासे रहित दैदीप्यमान हुआ तिष्ठता है । भावार्थ - सब वस्तुओंसे जुदा ज्ञानको प्रगट दिखलाते हैं ॥ ३८७ से ३८९ तक ॥
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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