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________________ अधिकारः ९] समयसारः । ४५५ कायवाङ्मनोभिः पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकैः करणैः करोति कायवाङ्मनांसि पुद्गलपरिणामात्मकानि करणानि गृह्णाति सुखदुःखादिपुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकं पुण्यपापादिकर्मफलं भुक्ते च नत्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वव्यवहारः । यथा च स एव शिल्पी चिकीर्षुः चेष्टानुरूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति । दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मकं चेष्टानुरूपकर्मफलं भुक्ते च एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वे सति तन्मयश्च भवति ततः परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चयः । तथात्मापि चिकीर्षुश्चेष्टारूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति । दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मकं चेष्टारूपकर्मफलं भुंक्ते च एकद्रव्यत्वेन ततोनन्यत्वे सति तन्मयश्च भवति ततः परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चयः । “ननु परिणामी एव किल कर्मविनिश्चयतः स भवति नापरस्य परिणामिन होदि यथा स एव शिल्पी कुंडलादिकमेवमेवं करोमीति मनसि चेष्टां कुर्वाणः सन् चित्तखेदेन नित्यं दुःखितो भवति । न केवलं दुःखितः । तत्तो सेय अणण्णो तस्माद्दुःखविकल्पादनुभवरूपेणानन्यश्च स स्यात् तह चेटुंनो दुही जीवो तथैवाज्ञानिजीवोऽपि विशुद्धज्ञानदर्शनादिव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारस्य साधको योऽसौ निश्चयरत्नत्रयात्मककारणसमयसारः, तस्यालाभे सुखदुःखभोक्तृत्वकाले हर्षविषादरूपां चेष्टां कुर्वाणः सन्मनसि दुःखितो भोक्ताभोग्यपनेका निश्चय है । उसीतरह आत्मा भी करनेका इच्छक हुआ अपने उपयोगकी तथा प्रदेशोंकी चेष्टारूप अपने परिणामस्वरूप कर्मको करता है और दुःखस्वरूप अपने परिणामरूप (चेष्टारूप) कर्मके फलको भोगता है । उन परिणामोंके अपने एक ही द्रव्यपनेकर अन्यपना न होनेसे उनसे तन्मय होता है । इसलिये उन परिणामोंमें परिणाम परिणामी भावकर कर्ता कर्मपनेका और भोक्ता भोग्यपनेका निश्चय है ।। अब २११ वां श्लोक कहते हैं-ननु इत्यादि । अर्थ-हे मुनियो ! तुम यह निश्चय करो कि यह प्रगट परिणाम है वह तो निश्चयसे कर्म है वह परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामी द्रव्यका ही होता है अन्यका नहीं होता । क्योंकि परिणाम अपने अपने द्रव्य के आश्रय हैं अन्यके परिणामका अन्य आश्रय नहीं होता । कर्म है वह कर्ता के विना नहीं होता । वस्तु है वह द्रव्य पर्यायस्वरूप है इसलिये उसकी एक अवस्थारूप कूटस्थ स्थिति आदि नहीं होती, सर्वथा नित्यपना बाधासहित है इसकारण अपने परिणामरूप कर्मका आप ही कर्ता है यह निश्चय सिद्धांत है ॥ अब इसी अर्थके समर्थनरूप २१२ वां कलशरूप काव्य कहते है-बहिलठति इत्यादि । अर्थ-यद्यपि वस्तु आप प्रकाशरूप अनंतशक्तिस्वरूप है तो भी अन्यवस्तु अन्यवस्तुमें प्रवेश नहीं करती बाहर ही लोटती है। क्योंकि सभी वस्तु अपने अपने स्वभावमें नियमरूप हैं ऐसा माना जाता है । इसपर आचार्य कहते हैं कि ऐसा होनेपर भी यह जीव अ.
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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