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________________ ४४५ अधिकारः ९] समयसारः। त्वयोरत्यंतविरुद्धत्वान्मिथ्यात्वादिभावानां न कर्ता भवति । भवंति च मिथ्यात्वादिभावाः ततस्तेषां कर्मैव कर्तृ प्ररूप्यत इति वासनोन्मेषः स तु नितरामात्मानं करोतीत्यभ्युपगममुपहंत्येव ततो ज्ञायकस्य भावस्य सामान्यापेक्षया ज्ञानस्वभावावस्थितत्वेऽपि कर्मजानां मिथ्यात्वादिभावानां ज्ञानसमयेऽनादिज्ञेयज्ञानशून्यत्वात् परमात्मेति जानतो विशेषापेक्षया त्वज्ञानरूपस्य ज्ञानपरिणामस्य करणात्कर्तृत्वमनुमंतव्यं तावद्यावत्तदादिज्ञेयज्ञानभेदविज्ञानपूर्णत्वादात्मानमेवात्मेति जानतो विशेषापेक्षयापि ज्ञानरूपेणैव ज्ञानपरिणामेन परिणममानस्य केवलं ज्ञातृत्वात्साक्षादकर्तृत्वं स्यात् । “मा कर्तारममी स्पृशंतु पुरुष सांख्या इवाप्याहताः कर्तारं कलयंतु तं किल सदा भेदावबोधादधः । ऊर्द्ध तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं पश्यतु च्युतकर्तृभावमचलं ज्ञातारमेकं परं ॥२०५॥ क्षणिकमिदमिहैकः कल्पयित्वात्मतत्त्वं निजमनसि विधत्ते कर्तृभोक्त्रोविभेदं । अपहरति मिष्टं चेत्तर्हि हिंसां कुरुत । भीतिरस्ति ? इति चेत् तर्हि त्यज्यतामिति । ततः स्थितमेतत्, एकांतेन सांख्यमतवदकर्ता न भवति किं तर्हि रागादिविकल्परहितसमाधिलक्षणभेदज्ञानकाले ज्ञानमंदिरमें निश्चित नियमरूप कर्तापनकर रहित निश्चल एक ज्ञाता ही अपने आप प्रत्यक्ष देखो ॥ भावार्थ-सांख्यमती पुरुषको एकांतकर अकर्ता शुद्ध उदासीन चैतन्यमात्र मानते हैं । ऐसा माननेसे पुरुषके संसारका अभाव आता है । प्रकृति के संसार माना जाय तो प्रकृति तो जड़ है, उसके सुखदुःख आदिका संवेदन नहीं है इसलिये किसका संसार ? इत्यादि दोष आते हैं। क्योंकि सर्वथा एकांत वस्तुका स्वरूप नहीं है इस कारण वे सांख्यमती मिथ्यादृष्टि हैं। उसीतरह जो जैनी भी मानते हैं तो वे मिथ्यादृष्टि होते हैं । इसलिये आचार्य उपदेश करते हैं कि सांख्यमतियोंकी तरह जैनी आत्माको सर्वथा अकर्ता मत मानो । जहांतक आप परका भेद विज्ञान न हो तबतक तो रागादिक अपने चेतनरूप भावकर्मोंका कर्ता मानो, भेद विज्ञान हुए वाद शुद्ध विज्ञानघन समस्त कर्तापनके अभावकर रहित एक ज्ञाता ही मानो । इसतरह एक ही आत्मामें कर्ता अकर्ता दोनों भाव विवक्षाके वशसे सिद्ध होते हैं । यह स्याद्वाद मत जैनियोंका है तथा वस्तुस्वभाव भी ऐसा ही है कल्पना नहीं है । ऐसा माननेसे पुरुषके संसार मोक्ष आदिकी सिद्धि होती है सर्वथा एकांत माननेमें सब निश्चय व्यवहारका लोप हो जाता है ऐसा जानना ॥ आगे बौद्धमती क्षणिकवादी ऐसा मानते हैं कि कर्ता तो अन्य है और भोक्ता अन्य है, उनके सर्वथा एकांत माननेमें दूषण दिखलाते हैं तथा स्याद्वादकर जिसतरह वस्तु स्वरूप कर्ता भोक्तापन है उसतरह दिखलाते हैं । उसमें प्रथम ही उसकी सूचनाका २०६ वां काव्य यह है-क्षणिक इत्यादि । अर्थ-एक १ ऊर्ध्व मिथ्यात्वरूपविभावपरिणामध्वंसानंतरं-उद्धतमविलंबेन ज्ञेयग्राहि यद्बोधधाम ज्ञानतेजस्तत्र नियतं तत्परं।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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