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________________ ४४० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [सर्वविशुद्धज्ञानकर्मभिस्तु अज्ञानी क्रियते ज्ञानी तथैव कर्मभिः । कर्मभिः स्वाप्यते जागर्यते तथैव कर्मभिः ॥ ३३२ ॥ कर्मभिः सुखीक्रियते दुःखीक्रियते तथैव कर्मभिः । कर्मभिश्च मिथ्यात्वं नीयते नीयतेऽसंयमं चैव ॥ ३३३ ॥ कर्मभिर्धाम्यते अर्ध्वमधश्चापि तिर्यग्लोकं च । कर्मभिश्चैव क्रियते शुभाशुभं यावद्यत्किंचित् ॥ ३३४ ॥ यस्मात् कर्म करोति कर्म ददाति कर्म हरतीति यत्किंचित् । तस्मात्तु सर्वजीवा अकारका भवंत्यापन्नाः ॥ ३३५ ॥ पुरुषः स्यभिलाषी स्त्रीकर्म च पुरुषमभिलषति । एषाचार्यपरंपरागतेदृशी तु श्रुतिः ॥ ३३६ ॥ अहिओ व कदं भणसि व्वं तस्माल्लोकमात्रप्रदेशप्रमाणात्स जीवः किं.हीनोऽधिको वा कृतो येन त्वं भणसि आत्मद्रव्यं कृतं किंतु नैवेति । अह जाणगो दु भावो णाणसहावेण अत्थिदेदि मदं अथ हे शिष्य ! ज्ञायको भावः पदार्थः आत्मा ज्ञानरूपेण पूर्वमेवास्तीति मतं । सम्मत्तमेव तह्मा णवि अप्पा अप्पयं तु सय. मप्पणो कुणदि यस्मान्निर्मलानंदैकज्ञानस्वभावशुद्धात्मा पूर्वमेवास्ति तस्मादात्मा कर्ता विवक्षा पलटकर पक्ष कहा था सो नहीं बना । यदि कर्मका कर्ता कर्मको ही मानें तो स्याद्वादसे विरोध ही आयेगा इसलिये कथंचित् अज्ञान अवस्थामें अपने अज्ञानभावरूप कर्मका कर्ता माननेमें स्याद्वादसे विरोध नहीं है ॥ टीका-वहां पूर्वपक्ष ऐसा है कि कर्म ही आत्माको अज्ञानी करता है, क्योंकि ज्ञानावरण कर्मके उदय विना उस अज्ञानकी अप्राप्ति है। कर्म ही आत्माको ज्ञानी करता है, क्योंकि ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम विना ज्ञानकी अप्राप्ति है। कर्म ही आत्माको सुआता है, क्योंकि निद्रा नामा कर्मके उदय विना निद्राकी अप्राप्ति है । कर्म ही आत्माको जगाता है, क्योंकि निद्रानाम कर्मके क्षयोपशम विना जगानेकी अप्राप्ति है । कर्म ही आत्माको सुखी करता है क्योंकि सातावेदनीय नाम कर्मके उदय विना सुखकी अप्राप्ति है । कर्म ही आत्माको दुःखी करता है क्योंकि असातावेदनीय नाम कर्मके उदय विना दुःखकी अप्राप्ति है । कर्म ही आत्माको मिथ्यादृष्टि करता है क्योंकि मिथ्यात्वकर्मके उदय विना मिथ्यात्वकी अप्राप्ति है। कर्म ही आत्माको असंयमी करता है, क्योंकि चारित्र मोह नामा कर्मके उदय विना असंयमकी अप्राप्ति है । कर्म ही आत्माको ऊर्ध्वलोकमें अधोलोकमें तिर्यंचलोकमें भ्रमाता है, क्योंकि आनुपूर्वी नामा कर्मके उदय विना भ्रमणकी अप्राप्ति है । अन्य भी जो कुछ शुभ अशुभ है उस सबको कर्म ही करता है क्योंकि प्रशस्त अप्रशस्त रागनामा कर्मके उदयविना उस शुभ अशुभकी अप्राप्ति है । इसप्रकार सब ही को कर्म स्वतंत्र होके करता
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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