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________________ ४१६ रायचन्छजैनशास्त्रमालायाम् । [सर्वविशुद्धज्ञानवति । स्वपरयोरेकत्वपरिणत्या चासंयतो भवति । तावदेव परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य करणात्कर्ता भवति । यदा त्वयमेव प्रतिनियतस्वलक्षणनिर्ज्ञानात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो बंधनिमित्तं मुंचति तदा स्वपरयोविभागज्ञानेन ज्ञायको भवति । स्वपरयोविभागदर्शनेन दशको भवति । स्वपरयोविभागपरिणत्या च संयतो भवति तदैव च परात्मनोरेकत्वाध्यासस्याकरणादकर्ता भवति । “भोक्तृत्वं न स्वभावोऽस्य स्मृतः कर्तृत्ववञ्चितः । अज्ञानादेव भोक्तायं तदभावादवेदकः ॥ १९६” ॥ ३१४ ॥ ३१५ ॥ भूतः सन् मोक्षं न लभते । यदा पुनरयमेव चेतयिता मिथ्यात्वरागादिरूपं कर्मफलं शक्तिरूपेणानंतविशेषेण सर्वप्रकारेण मुंचति तदा शुद्धबुद्धैकस्वभावात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुभवरूपाणां सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां सद्भावात् लोभमिथ्यात्वरागादिभ्यो भिन्नमात्मानं श्रद्दधाति जानात्यनुभवति च । ततः सम्यग्दृष्टिर्भवति, संयतो मुनिश्च भवति । तथाभूतः सन् विशेषेण द्रव्यभावगतमूलोत्तरप्रकृतिविनाशेन मुक्तो भवतीति । एवं यद्यप्यात्मा शुद्धनिश्चयेन कर्ता न भवति तथाप्यनादिकर्मबंधवशान्मिथ्यात्वरागाद्यज्ञानभावेन कर्म बनातीति अज्ञानसामर्थ्यज्ञापनार्थं द्वितीयस्थले सूत्रचतुष्टयं गतं ॥३१४॥३१५॥ अथ शुद्धनिश्चयनयेन कर्मफलभोक्तृत्वं जीवस्वआत्मा अपना और प्रकृतिका जुदा जुदा स्वभावरूप लक्षणके भेदज्ञानके अभावसे अपने बंधका निमित्त जो प्रकृतिका स्वभाव उसे नहीं छोडता तबतक अपने और परके एकपनेके ज्ञानकर अज्ञायक होता है, अपने परके एकपनेके दर्शन (श्रद्धान) कर मिथ्यादृष्टि होता है, अपनी परकी एकपनेकी परिणतिकर असंयत होता है तबतक ही पर और आत्माके एकपनेका अध्यवसान करनेसे कर्ता होता है। और जिससमय यही आत्मा आप और प्रकृतिके जुदे जुदे स्वलक्षणके निर्णयरूप ज्ञानसे अपने बंधका निमित्त प्रकृतिके स्वभावको छोड देता है उस काल अपना परका विभागके ज्ञानकर ज्ञायक होता है, अपने और परके विभागका श्रद्धानकर दर्शक होता है अपने परके विभागकी परिणतिकर संयत होता है और उसी काल अपने परके एकपनका अभ्यास न करनेसे अकर्ता होता है ।। भावार्थ-यह आत्मा जबतक अपना और परका निजलक्षण नहीं जानता तबतक भेदज्ञानके अभावसे कर्मप्रकृतिके उदयको अपना समझ परिणमता है । उसीतरह मिथ्यादृष्टि अज्ञानी असंयमी होके कर्ता हुआ कर्मका बंध करता है । और जब भेदज्ञान हो जाता है तब उसका न कर्ता बनता है न कर्मका बंध करता है केवल ज्ञाता द्रष्टा हुआ परिणमता है । इसीतरह भोक्तापन आत्माका स्वभाव नहीं है ऐसा उसकी सूचनाका १९६ वां श्लोक कहते हैं-भोक्तृत्वं इत्यादि । अर्थ-इस आत्माका जैसे कर्ता स्वभाव नहीं है उसीतरह भोक्तापन स्वभावभी नहीं है यह अज्ञानसे ही भोक्ता होता है। जब अज्ञानका अभाव होजाता है तब भोक्ता नहीं होता ॥३१४।३१५॥ १स्थितः इति ख. पाठः ।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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