SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसारः । उक्तं च । “जइ जिणमयं पवजह ता मा ववहारणिच्छए मुयए । एकैण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तचं ॥" उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदांके जिनवचसि रमंते ये स्वयं वांतमोहाः । सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चैरनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षंत एव ॥ ४ ॥ व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्यामिह निहितपदानां हंत हस्तावलंबः । तदपि परममर्थ चिच्चमत्कारमानं परविरहितमंतः पश्यतां नैष किंचित् ॥ ५ ॥ "एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्नुर्यदस्यात्मनः पूर्णज्ञानघनस्य दर्शनमिह द्रव्यांतरेभ्यः पृथक् । सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसंततिमिरदेशितो व्यवहारनयः पुण पुनः अधस्तनवर्णिकसुवर्णलाभवत्प्रयोजनवान् भवति । केषां । जे ये पुरुषाः दु पुनः अपरमे अशुद्धे असंयतसम्यग्दृष्टयपेक्षया श्रावकापेक्षया वा सरागसम्य यभेद उनमें व्यापनेवाला यह आत्मा शुद्धनयकर एकपनेमें निश्चित किया-शुद्धनयसे ज्ञायक मात्र एक आकार दिखलाया उसको सब अन्यद्रव्य और अन्यद्रव्योंके भावोंसे न्यारा देखना श्रद्धान करना वह नियमसे सम्यग्दर्शन है । व्यवहारनय आत्माको अनेक भेदरूप कहकर सम्यग्दर्शनको अनेकभेदरूप कहता है उसजगह व्यभिचार (दोष) आता है नियम नहीं रहता। शुद्ध नयकी हद पहुंचते व्यभिचार नहीं रहता इसलिये नियम रूप है । कैसा है शुद्ध नयका विषयभूत आत्मा पूर्ण ज्ञानघन है--सब लोकालोकका जाननेवाला ज्ञान स्वरूप है ऐसे आत्माका श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन है वह कुछ जुदा पदार्थ नहीं है आत्माका ही परिणाम है। इसलिये आत्मा ही है । इसकारण सम्यग्दर्शन है वह आत्मा है अन्य नहीं है ॥ यहांपर इतना और जानना कि नय हैं वे श्रुतप्रमाणके अंश हैं इसलिये शुद्धनय भी श्रुत प्रमाणका ही अंश हुआ। श्रुतप्रमाण है वह परोक्षप्रमाण है क्योंकि वस्तुको सर्वज्ञके आगमके वचनसे जाना है । यह शुद्धनय भी परोक्ष सब द्रव्योंसे जुदे सब आत्माकी पर्यायोंमें व्याप्त पूर्ण चैतन्य केवल ज्ञानरूप सब लोकालोकके जाननेवाले असाधारण चैतन्य धर्मको दिखलाता है, उसको यह व्यवहारी छद्मस्थ ( अल्पज्ञानी ) जीव आगमको प्रमाणकर पूर्ण आत्माका श्रद्धान करे वही श्रद्धान निश्चय सम्यग्दर्शन है । जबतक व्यवहारनयके विषयभूत जीवादिक भेदरूप तत्त्वोंका केवल श्रद्धान रहता है तबतक निश्वयसम्यग्दर्शन नहीं हो सकता । इसलिये आचार्य कहते हैं कि इन तत्त्वोंकी संतति (परिपाटी ) को छोडकर शुद्धनयका विषयभूत एक यह आत्मा ही हमको प्राप्त हो दूसरा कुछ नहीं चाहते। यह वीतराग अवस्थाकी प्रार्थना है कुछ नयपक्ष नहीं है । जो सर्वथा नयोंका पक्षपात ही हुआ करे तो मिथ्यात्व ही है । यहांपर कोई प्रश्न करे कि यह अनुभवमें चैतन्यमात्र आना इतना ही आत्माको मान श्रद्धान करे तो सम्यग्दर्शन है कि नहीं ? उसका समाधान । जो चैतन्य
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy