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________________ २६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । घनेकपाकपरंपरापच्यमानका-स्वरानुभवस्थानीयापरमभावानुभवनशून्यत्वाच्छुद्धद्रव्यादेशितया समुद्योतितास्खलितैकस्वभावैकभावः शुद्धनय एवोपरितानेकप्रतिवर्णिकास्थानीयत्वात्पवर्णलाभवत्केषांचित्प्राथमिकानां कदाचित् सविकल्पावस्थायां मिथ्यात्वविषयकषायदुर्ध्यानवंचनार्थ व्यवहारनयोपि प्रयोजनवान् भवतीति प्रतिपादयति-सुद्धो शुद्धनयः निश्चयनयः । कथंभूतः । हैं ॥ टीका-यहां दृष्टांतसे कहते हैं कि, जो पुरुष अंतके पाकसे उतरे हुए शुद्ध सोनेके समान वस्तुके उत्कृष्ट असाधारण भावोंको अनुभवते हैं उनको प्रथम द्वितीय आदि अनेकपाकोंकी परंपरासे पच्यमान अशुद्ध सुवर्णके समान जो अनुत्कृष्ट मध्यमभाव उसका अनुभव नहीं होता । इसलिये शुद्धद्रव्यके ही कहनेवाली होनेसे जिसने अचलित अखंड एकस्वभावरूप एकभाव प्रगट किया है ऐसी शुद्धनय ही दूर हुए अनेकवर्णों वाली एक शुद्ध सुवर्णावस्थाके समान जानी हुई प्रयोजनवान है । और जो पुरुष प्रथम द्वितीय आदि अनेक पाकोंकी परंपरासे पच्यमान उस अशुद्ध सुवर्णके समान वस्तुके अनुत्कृष्ट मध्यम भावको अनुभवते हैं उनको अंतके पाककर उतरे हुए शुद्धसुवर्णके समान वस्तुके उत्कृष्टभावका अनुभव न होनेसे उसकालमें जाना हुआ व्यवहारनय ही प्रयोजनवान है। कैसा है व्यवहारनय ? जिसने अशुद्धद्रव्यके कहनेसे जुदे २ एक भावस्वरूप अनेकभाव दिखलाये हैं तथा विचित्र अनेकवर्णमालाके समान है । इसतरह अपने २ समयमें दोनों ही नय कार्यकारी हैं। क्योंकि तीर्थ और तीर्थके फलकी ऐसी ही व्यवस्थिति है । जिससे तिरा जावे वह तीर्थ है ऐसा तो व्यवहार धर्म है और जो पार होना वह व्यवहार धर्मका फल है अथवा अपने स्वरूपका पाना वह तीर्थफल है । ऐसा ही दूसरी जगह भी "जो जिणमयं" इत्यादि गाथासे कहा गया है । उसका अर्थ ऐसा है। आचार्य कहते हैं कि हे भव्य जीवो! जो तुम जिनमतको प्रवर्ताना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय-इन दोनों नयोंको मत छोड़ो क्योंकि एक व्यवहार नयके विना तो तीर्थ-व्यवहार मार्गका नाश हो जायगा और दूसरी निश्चयनयके विना तत्त्व ( वस्तु ) का नाश हो जायगा ॥ भावार्थ-लोकमें सोनेके सोलह वान ( ताव ) प्रसिद्ध हैं उनमें पंद्रह वान तक चूरी आदि परसंयोगकी कालिमा रहती है तब तक अशुद्ध कहते हैं और फिर ताव देते २ अंतके तावसे उतरे तब सोलहवान शुद्ध सुवर्ण कहलाता है। जिन जीवोंको सोलहवानके सोनेका ज्ञान श्रद्धान तथा उसकी प्राप्ति हुई उनको पंद्रहवानतकका कुछ प्रयोजनवान नहीं है । और जिनको सोलहवानके शुद्ध सुवर्णकी प्राप्ति जबतक नहीं हुई तबतक पंद्रहवानतकका भी प्रयोजनवान् है ॥ उसीतरह यह जीव नामा पदार्थ है वह पुद्गलके संयोगसे अशुद्ध अनेक रूप हो रहा है उसका सब परद्रव्योंसे भिन्न एक ज्ञायकपनेमात्रका जिनको ज्ञान श्रद्धान तथा आचरणरूप प्राप्ति ये तीनों होगये उनको तो पुद्गलसंयोगजनित अनेकरूपपनेको कहनेवाला अशुद्धनय कुछ प्रयोजनवान् ( किसी
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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