SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [बंधरोचनस्पर्शनैरुपरितनौवेयकभोगमात्रमास्कंदन्न पुनः कदाचनापि विमुच्यते, ततोऽस्य भूतार्थधर्मश्रद्धानाभावात् श्रद्धानमपि नास्ति । एवं सति तु निश्चयनयस्य व्यवहारनयप्रतिषेधो युज्यत एव ॥ २७५ ॥ कीदृशौ प्रतिषेध्यप्रतिषेधको व्यवहारनिश्चयनयाविति चेत् ; आयारादी णाणं जीवादी दंसणं च विण्णेयं । छज्जीवणिकं च तहा भणइ चरित्तं तु ववहारो ॥ २७६ ॥ आदा खु मज्झ णाणं आदा मे दंसणं चरित्तं च । आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो ॥ २७७ ॥ मित्तं नच कर्मक्षयनिमित्तं शुद्धात्मसंवित्तिलक्षणं निश्चयधर्ममिति ॥ २७५ ॥ अथ कीदृशौ तौ प्रतिषेध्यप्रतिषेधको व्यवहारनिश्चयनयाविति चेत् ;-आयारादी णाणं आचारसूत्रकृतमित्यादि एकादशांगशब्दशास्त्रज्ञानस्याश्रयत्वात्कारणत्वाद् व्यवहारेण ज्ञानं भवति । जीवादी दंसणं च विण्णेयं जीवादिनवपदार्थः श्रद्धानविषयः सम्यक्त्वाश्रयत्वानिमित्तत्वाद् व्यवहारेण सम्यक्त्वं भवति । छज्जीवाणं रक्खा भणति चरित्तं तु ववहारो पटजीवनिकायरक्षा चारित्राश्रयत्वात् हेतुत्वाद् व्यवहारेण चारित्रं भवति । एवं पराश्रितत्वेन व्यवहारमोक्षमार्गः प्रोक्त इति । आदा खु मज्झ णाणे स्वशुद्धात्मा ज्ञानस्याश्रयत्वानिमित्तत्वानहीं कहा जासकता और इसीसे निश्चयनयमें व्यवहारनयका निषेध है। यहां इतना और जानना कि यह हेतुवादरूप अनुभव प्रधानग्रंथ है इसलिये भव्य अभव्यका अनुभवकी अपेक्षानिर्णय है तथा यही अहेतुवाद आगमसे मिलाओ तब अभव्यके सूक्ष्म केवली गम्य ऐसा ही व्यवहारनयकी पक्षका आशय रहजाता है । वह छद्मस्थ ( अल्पज्ञानी) के अनुभवगोचर नहीं भी होता परंतु सर्वज्ञदेव जानते हैं। उसके केवल व्यवहारकी पक्षसे सर्वथा एकांतरूप मिथ्यात्व रहता है अभव्यका यह आशय सर्वथा नहीं मिटता इसलिये अभव्य ही है ॥ २७५ ॥ ___ आगे पूछते हैं कि निश्चयनय तो व्यवहारका प्रतिषेधक कहा है और निश्चयनयके व्यवहारनय प्रतिषेधने योग्य कहा सो ये दोनों ही किसतरह हैं ? ऐसा पूछनेपर निश्चय व्यवहारका स्वरूप प्रगट कहते हैं;- [आचारादि ज्ञानं] आचारांग आदि शास्त्र तो ज्ञान है [च] तथा [जीवादि दर्शनं] जीवादि तत्त्व हैं वे दर्शन [विज्ञेयं] जानना [च] और [षड्जीवनिकायं] छह कायके जीवोंकी रक्षा [चारित्रं ] चारित्र है [ तथा तु] इस तरह तो [व्यवहारः भणति ] व्यवहारनय कहता है [खल] और निश्चयकर [मम आत्मा ज्ञानं] मेरा आत्मा ही ज्ञान है [ मे १ तात्पर्यवृत्तौ छज्जीवाणं रक्खा इति पाठः ।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy