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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [बंधतस्यैकादशांगज्ञानमस्ति ? इति चेत् ; मोक्खं असद्दहंतो अभवियसत्तो दु जो अधीएज। पाठो ण करेदि गुणं असद्दहंतस्स णाणं तु ॥ २७४ ॥ मोक्षमश्रद्दधानोऽभव्यसत्त्वस्तु योऽधीयीत । पाठो न करोति गुणमश्रद्दधानस्य ज्ञानं तु ॥ २७४ ॥ मोक्षं हि न तावदभव्यः श्रद्धत्ते शुद्धज्ञानमयात्मज्ञानशून्यत्वात् । ततो ज्ञानमपि नासौ श्रद्धत्ते, ज्ञानमश्रद्दधानश्वाचाराधेकादशांगं श्रुतमधीयानोऽपि श्रुताध्ययनगुणाभावान्न ज्ञानी स्यात् स किल गुणः श्रुताध्ययनस्य यद्विविक्तवस्तुभूतज्ञानमयात्मज्ञानं तच्च विविक्तवस्तुभूतं ज्ञानमश्रद्दधानस्याभव्यस्य श्रुताध्ययनेन न विधातुं शक्येत ततस्तस्य तद्गुणाभावः, ततश्च ज्ञानश्रद्धानाभावात् सोज्ज्ञानीति प्रतिनियतः ॥ २७४ ॥ असद्दहंतो अभविय सत्तो दुजो अधीयेज मोक्षमश्रद्दधानः सन्नभव्यजीवो यद्यपि ख्यातिपूजालाभार्थमेकादशांगश्रुताध्ययनं कुर्यात् पाठो ण करेदि गुणं तथापि तस्य शास्त्रपाठः शुद्धात्मपरिज्ञामरूपं गुणं न करोति । किंकुर्वतस्तस्य ? असद्दहंतस्य णाणं तु अश्रद्दधतोऽरोचमानस्य । किं ? ज्ञानं । कोऽर्थः ? शुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपेण निविकल्पसमाधिना प्राप्यं गम्यं शुद्धात्मस्वरूपमिति । कस्मान्न श्रद्धत्ते? दर्शनचारित्रमोहनीयोपशमक्षयोपशमक्षयाभावात् । तदपि कस्मात् ? अभव्यत्वादिति भावार्थः ॥ २७४ ॥ अथ तस्य आगे शिष्य कहता है कि उसके तो ग्यारह अंगतकका ज्ञान होता है उसे अज्ञानी क्यौं कहा ? उसका उत्तर कहते हैं;-[ यः अभव्यसत्त्वः ]. जो अभव्य जीव [अधीयीत ] शास्त्रका पाठभी पढता है [तु] परंतु [मोक्षं] मोक्षतत्त्वका [अश्रद्दधानः ] श्रद्धान नहीं करता [ तु] तो [ ज्ञानं अश्रद्दधानस्य ] ज्ञानका श्रद्धान नहीं करनेवाले उस अभव्यका [पाठः] शास्त्र पढना [गुणं न करोति] लाभ नहीं करता ॥ टीका-अभव्य जीव प्रथम तो निश्चयकर मोक्षका ही श्रद्धान नहीं करता क्योंकि शुद्धज्ञानमय आत्माका ज्ञान ही अभव्यके नहीं है इसलिये अभव्यजीव ज्ञानको भी श्रद्धानरूप नहीं करता । और ज्ञानका श्रद्धान न करनेवाला अभव्य आचारांगको आदि लेकर ग्यारह अंगरूप श्रुतको पढताहुआ भी शास्त्र पढनेके गुण ( फल ) के अभावसे ज्ञानी नहीं होता । शास्त्र पढनेका यह गुण है कि भिन्नवस्तुभूत ज्ञानमय आत्माका ज्ञान हो । सो उस भिन्नवस्तुभूत ज्ञानको नहीं श्रद्धान करनेवाला अभव्य शास्त्रके पढनेसे आत्मज्ञान करनेको समर्थ नहीं होता । इसलिये उसके शास्त्र पढनेका गुण जो भिन्न आत्माका जानना वह नहीं है इसलिये सच्चे ज्ञान श्रद्धानके अभावसे वह अभव्य अज्ञानी ही है यह नियम है ॥ भावार्थ-अभव्य जीव ग्यारह अंग पढे तो भी उसके शुद्ध आत्माका ज्ञान श्रद्धान नहीं होता इसलिये उसके शास्त्रका पढना गुणकारी नहीं हुआ। इसकारण वह अज्ञानी ही है ॥ २७४ ॥
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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