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________________ अधिकारः ६] समयसारः। विजारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा । सो जिणणाणपहावी सम्मादिट्टी मुणेयव्वो ॥ २३६॥ विद्यारथमारूढः मनोरथपथेषु भ्रमति यश्चेतयिता । स जिनज्ञानप्रभावी सम्यग्दृष्टितिव्यः ॥ २३६ ॥ तस्य चावात्सल्यभावकृतो नास्ति बंधः किं तु पूर्वसंचितकर्मणो निर्जरैव भवति ॥ २३५ ॥ विजारहमारूढो मणोरहरएसु हणदि जो चेदा यश्चेतयिता आत्मा स्वशुद्धात्मतत्त्वोपलब्धिस्वरूपविद्यारथमारूढः सन् ख्यातिपूजालाभभोगाकांक्षारूपनिदानबंधादिविभावपरिणामरूपान् द्रव्यक्षेत्रादिपंचप्रकारसंसारदुःखकारणान् शत्रून् मनोरथरयान् वेगांश्चित्तकल्लोलान् स्वस्थभावसारथिबलेन दृढतरध्यानखड्नेन हंति । सो जिणणाणपहावी सम्मादिही मुणेदव्वो स सम्यग्दृष्टिर्जिनज्ञानप्रभावी मंतव्यो ज्ञातव्यः । तस्य चाप्रभावनाकृतो नास्ति बंधः किं तु पूर्वसंचितकर्मणो निश्चितं निर्जरैव भवति । एवं संवरपूर्विकाया भावनिर्जराया उपादानकारणभूतानां शुद्धात्मभावनारूपाणां शुद्धनयमाश्रित्य निश्शंकाद्यष्टगुणानां व्याख्यानमुख्यत्वेन गाथानवकं गतं। इदं तु निश्शंकाद्यष्टगुणव्याख्यानं निश्चयनयमुख्यत्वेन व्याख्यातं । निश्चयरत्नत्रयसाधके व्यवहाररत्नत्रयेऽपि स्थितस्य सरागसम्यग्दृष्टेरप्यंजनचौरादिकथारूपेण व्यवहारनयेन यथासंभवं योजनीयं । निश्चयं व्याख्याय पुनरपि किमर्थ व्यवहारनयव्याख्यानं ? इति चेन्नैवं । अग्निसुवर्णपाषाणयोरिव निश्चयव्यवहारनययोः परस्परसाध्यसाधकभावदर्शनार्थमिति । तथाचोक्तंअप्राप्तिकर किया कर्मका बंध नहीं होता कर्मरस ( फल ) देकर खिर जाता है इसलिये निर्जरा ही है ॥ २३५॥ आगे प्रभावनागुणकी गाथा कहते हैं;-[यः] जो जीव [विद्यारथं आरूढः] विद्यारूपी रथमें चढा [ मनोरथपथेषु] मनरूपी रथके चलनेके मार्ग में [भ्रमति ] भ्रमण करता है [ सःचेतयिता] वह ज्ञानी [जिनज्ञानप्रभावी ] जिनेश्वरके ज्ञानकी प्रभावना करनेवाला [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः ] जानना ॥ टीका-जो निश्चयकर सम्यग्दृष्टि है वह टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपनेसे ज्ञानकी समस्त शक्तिके फैलानेकर प्रभावके उपजानेसे प्रभावना करनेवाला है इसलिये इसके ज्ञानकी प्रभावनाका बढाना नहीं है उसकर किया बंध नहीं होता निर्जरा ही होती है । भावार्थ-प्रभावना नाम उद्योत करना प्रगट करना इत्यादिकका है इसलिये जो अपने ज्ञानको निरंतर अभ्याससे प्रगट करता है बढाता है उसके प्रभावना अंग होता हैं अप्रभावनाकृत कर्मका बंध नहीं है कर्म रस देकर खिर जाता है इसकारण निर्जरा ही है ॥ यहां गाथामें ऐसा कहा है कि जो विद्यारूपी रथमें आत्माको स्थापन १"मणोरहरएसु हणदि जो चेदा"पाठोयं तात्पर्यवृत्तौ।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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