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________________ ३२४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [निर्जराजो हवइ असम्मूढो चेदा सद्दिट्टि सव्वभावेसु । सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो ॥ २३२ ॥ यो भवति असंमूढः चेतयिता सद्दृष्टिः सर्वभावेषु । स खलु अमूढदृष्टिः सम्यग्दृष्टितिव्यः ॥ २३२ ॥ यतो हि सम्यग्दृष्टिः, टंकोत्कीर्णज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि भावेषु मोहाभावादमूढदृष्टिः ततोऽस्य मूढदृष्टिकृतो नास्ति बंधः किं तु निर्जरैव ॥ २३२॥ जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगृहणगो दु सव्वधम्माणं । सो उवगृहणकारी सम्मादिही मुणेयव्वो ॥ २३३ ॥ किं तु पूर्वसंचितकर्मणो निर्जरैव भवति ॥ २३१ ॥ जो हवदि असंमूढो चेदा सव्वेसु कम्गभावेसु यश्चेतयिता आत्मा स्वकीयशुद्धात्मनि श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपेण निश्चयरत्नत्रयलक्षणभावनाबलेन शुभाशुभकर्मजनितपरिणामरूपे बहिर्विषये सर्वथाऽसंमूढो भवति सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो स खलु स्फुटं सम्यग्दृष्टिरमूढदृष्टिमन्तव्यो ज्ञातव्यः । तस्य च बहिर्विषये मूढताकृतो नास्ति बंधः परसमयकृतो वा, किं तु पूर्वबद्धकर्मणो निश्चितं निर्जरैव भवति ॥ २३२ ॥ जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगृहणगो दु सव्वधम्माणं शुद्धात्मभावनारूपपारमार्थिकसिद्धभक्तियुक्तः मिथ्यात्वरागा___ आगे अमूढदृष्टि अंगकी गाथा कहते हैं;-[यः] जो जीव [ सर्वभावेषु ] सब भावोंमें [ असंमूढः ] मूढ नहीं होता [सद्दृष्टिः] यथार्थ दृष्टि रखता है [ स चेतयिता] वह ज्ञानी जीव [खलु ] निश्चयकर [ अमूढदृष्टिः ] अमूढदृष्टि [सम्यग्दृष्टिः] सम्यग्दृष्टि [ज्ञातव्यः] जानना ॥ टीका-निश्चयकर सम्यग्दृष्टि है वह टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावमयपनेकर सब भावोंमें मोहके अभावसे अमूढदृष्टि है इसलिये इसके मूढदृष्टिकर किया गया बंध नहीं है निर्जरा ही है ॥ भावार्थसम्यग्दृष्टि सब पदार्थोंका स्वरूप यथार्थ जानता है उनपर राग द्वेष मोहके अभावसे अयथार्थ दृष्टि नहीं पड़ती और जो चारित्रमोहके उदयसे इष्टानिष्ट भाव उपजते हैं उनको उदयकी बलवत्ता ज़ान उन भावोंका कर्ता नहीं होता इसलिये मूढदृष्टिकर किया वंध नहीं है निर्जरा ही है। प्रकृति रस देकर क्षीण हो जाती है सो निर्जरा ही हुई ॥२३२ ॥ अब उपगूहन गुणकी गाथा कहते हैं;--[ यः] जो जीव [ सिद्धभक्तियुक्तः] सिद्धोंकी भक्तिकर सहित हो [तु ] और [ सर्वधर्माणां ] अन्य वस्तुके सब धर्मोंका [ उपगूहनकः ] गोपनेवाला हो [ सः] वह [ उपगूहनकारी] उपगूहन
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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