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________________ ३२२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ निर्जरायतो हि सम्यग्दृष्टिः, टंकोत्कीर्णंकज्ञायकभावमयत्वेन कर्मवंधशंकाकरमिथ्यात्वादिभावाभावान्निश्शंकः ततोऽस्य शंकाकृतो नास्ति बंधः किं तु निर्जरैव ॥ २२९ ॥ जो दु ण करेदि कंखं कम्मफलेसु तह सव्वधम्मसु । सो णिकंखो चेदा सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो ॥ २३० ॥ यस्तु न करोति कांक्षा कर्मफलेषु तथा सर्वधर्मेषु । स निष्कांक्षश्चेतयिता सम्यग्दृष्टितिव्यः ॥ २३० ॥ निष्कर्मात्मतत्त्वविलक्षणत्वेन कर्मकरान् निर्मोहात्मद्रव्यपृथक्त्वेन मोहकरान् अव्याबाधसुखादिगुणलक्षणपरमात्मपदार्थभिन्नत्वेन वा बाधाकरांस्तान् आगमप्रसिद्धाश्चतुरः पादान् शुद्धात्मभावनाविषये निश्शंको भूत्वा स्वसंवेदनज्ञानखड्नेन छिनत्ति सो णिस्संको चेदा सम्मादिट्टी मुणेदव्वो स चेतयिता आत्मा सम्यग्दृष्टिर्निशंको मंतव्यः तस्य तु शुद्धात्मभावनाविषये शंकाकृतो नास्ति बंधः, किं तु पूर्वबद्धकर्मणो निश्चितं निर्जरैव भवति ॥ २२९ ॥ जो ण करेदि दु कंखं कम्मफले तहय सव्वधम्मसु यः कर्ता शुद्धात्मभावनासंजातपरमानंदसुखे तृप्तो भूत्वा कांक्षां वाछां न करोति । केषु ? पंचेंद्रियविषयसुखभूतेषु कर्मफलेषु तथैव च समस्तवस्तुधर्मेषु स्वभावेषु अथवा विषयसुखकारणभूतेषु नानाप्रकारपुण्यरूपधर्मेषु अथवा इहलोकपरलोककांक्षारूपसमस्तपरसमयप्रणीतकुधर्मेषु । सो णिकंखो चेदा स्वामीपनेके अभावसे कर्ता नहीं होता इसलिये भय प्रकृतिके उदय आनेपर भी शंकाके अभावसे स्वरूपसे भ्रष्ट नहीं होता निःशंक रहता है। इसलिये इसके शंकाकृत बंध नहीं होता, कर्म रस देकर क्षय हो जाता है ॥ २२९ ॥ आगे निःकांक्षित गुणकी गाथा कहते हैं;-[यः चेतयिता] जो आत्मा [कर्मफलेषु ] कर्मोंके फलोंमें [तथा ] तथा [ सर्वधर्मेषु ] सब धर्मों में [ कांक्षां] वांछा [ न तु] नहीं [ करोति ] करता [ सः] वह आत्मा [ निष्कांक्षः सम्यग्दृष्टिः ] निःकांक्ष सम्यग्दृष्टि [ ज्ञातव्यः ] जानना ॥ टीका-जिसकारण सम्यग्दृष्टि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावमयपनेकर सब ही कर्मों के फलोंमें तथा सभी वस्तुके धर्मोर्मे वांछाके अभावसे निष्कांक्ष है निर्वाचक है इसलिये इसके कांक्षा ( इच्छा ) कर किया हुआ बंध नहीं है। तो क्या है ? निर्जरा ही है ॥ भावार्थ-सम्यग्दृष्टिके कर्मके फलमें तथा सब धर्मों में अर्थात् काच सोना आदि, निंदा प्रशंसा आदिके वचनरूप पुद्गलके परिणमन अथवा अन्यमतियोंकर माने हुए अनेक प्रकार सर्वथा एकांतरूप व्यवहार धर्मके भेदोंमें वांछा नहीं है। इसलिये वांछाकर होनेवाला बंध इसके नहीं है। . १ 'जो ण करेदि दु कखं' पाठोयं तात्पर्यवृत्तौ।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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