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________________ २० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । पद्यत एव । तथा किल लोकोप्यात्मेत्यभिहिते सति यथावस्थितात्मस्वरूपपरिज्ञानबहिष्कृतत्वान्न किंचिदपि प्रतिपद्यमानो मेष इवानिमेषोन्मेषितचक्षुः प्रेक्षत एव । यदा तु स एव व्यवहारपरमार्थपथप्रस्थापितसम्यग्बोधमहारथरथिनान्येन तेनैव वा व्यवहारपथमास्थाय दर्शनज्ञानचारित्राण्यततीत्यात्मेत्यात्मपदस्याभिधेयं प्रतिपाद्यते तदा सद्य एवोद्यदमंदानंदतः सुंदरबंधुरबोधतरंगस्तत्प्रतिपद्यत एव । एवं म्लेच्छभाषास्थानीयत्वेन परमार्थप्रतिपादकत्वादुपन्यसनीयोऽथ च ब्राह्मणो न म्लेच्छितव्य इति वचनाद्वयवहारनयो नानुसतव्यः ॥८॥ कथं व्यवहारस्य प्रतिपादकत्वमिति चेत् ; जो हि सुएणहिगच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सुयकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पईवयरा ॥९॥ द्राह्मणो यतिर्वा म्लेच्छपल्ल्यां गतः तेन नमस्कारे कृते सति ब्राह्मणेन यतिना वा स्वस्तीति भणिते स्वस्त्यर्थमविनश्वरत्वमजानन्सन् निरीक्ष्यते मेष इव । तथायमज्ञानिजनोप्यात्मेतिभणिते सत्यात्मशब्दस्यार्थमजानन्सन् भ्रांत्या निरीक्ष्यत एव । यदा पुनर्निश्चयव्यवहारज्ञपुरुषेण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि जीवशब्दस्यार्थ इति कथ्यते तदा संतुष्टो भूत्वा जानातीति । एवं भेदाभेदरत्नत्रयव्याख्यानमुख्यतया गाथाद्वयेन द्वितीयं स्थलं गतं ॥ ८॥ अथ पूर्वगाथायां भणितव्यवअर्थ समझता ही है। उसीतरह व्यवहारीजन भी “आत्मा" ऐसा शब्द कहनेसे जैसा आत्मशब्दका अर्थ है उस अर्थके ज्ञानसे रहित है । इसकारण आत्मशब्दका अर्थ कुछ भी नहीं समझता हुआ मैंढेकी तरह टकटकी लगाकर देखता ही रहता है। और जब कोई व्यवहार परमार्थ मार्गपर सम्यग्ज्ञानरूप महारथको चलानेवाले सारथीके समान आचार्य तथा अन्य कोई विद्वान् व्यवहारमार्गमें रहकर "दर्शन ज्ञान चारित्रको हमेशा जो प्राप्त हो वह आत्मा है" ऐसा आत्म शब्दका अर्थ कहता है तब उसी समय उत्पन्न हुए अत्यंत आनंदवाले हृदयमें सुंदर और ज्ञानरूप तरंगोंके उछलनेसे वह व्यवहारीजन उस आत्मशब्दका अर्थ अच्छीतरह समझ जाता है । इसप्रकार यहां जगत तो म्लेच्छ स्थानीय जानना और व्यवहारनय म्लेच्छ भाषाके समान जानना । इसलिये व्यवहारको परमार्थका कहनेवाला समझ स्थापन करना योग्य है । अथवा ब्राह्मणको म्लेच्छ न होना इस वचनसे व्यवहारनयको कथंचित् उपादेय मान अंगीकार करना तथा सर्वथा उपादेय नहीं मानना ।। भावार्थ-लोक शुद्धनयको तो जानते ही नहीं हैं क्योंकि शुद्धनयका विषय अभेद एकरूप वस्तु है । तथा अशुद्ध नयको ही जानते हैं क्योंकि इसका विषय भेदरूप अनेक प्रकार है इसलिये व्यवहारके द्वारा ही शुद्धनयरूप परमार्थको समझ सकते हैं । इसकारण व्यवहारनयको परमार्थका कहनेवाला जान उसका उपदेश किया जाता है । यहांपर ऐसा न समझना कि व्यवहारका आलंबन कराते हैं वल्कि यहां तो व्यवहारका आलंबन छुड़ाके परमार्थको पहुंचाते हैं ऐसा जानना ॥ ८॥ आगे प्रश्न उत्पन्न होता है
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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