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________________ ३१६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ निर्जरा सेवते ततस्तत्कर्म तस्य फलं न ददातीति तात्पर्यं ॥ त्यक्तं येन फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं किन्त्वस्यापि कुतोऽपि किंचिदपि तत्कर्मावशेनापतेत् । तस्मिन्नापतिते त्वकं - पपरमज्ञानस्वभावे स्थितो ज्ञानी किं कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः ॥ १५३ ॥ सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कर्तुं क्षमंते परं यद्वजेऽपि पतत्यमी भयचललै गान् इति ज्ञानिजीवविषये व्यतिरेकदृष्टांतगाथा गता । एवमेव च सम्यग्दृष्टिर्जीव: पूर्वोपार्जित - मुदयागतं कर्मरजः शुद्धात्मभावनोत्थवीतरागसुखानंदात्प्रच्युतो भूत्वा विषयसुखार्थं, उपादेयबुद्ध्या न सेवते ततस्तदपि कर्म न ददाति, कान् ? विविधसुखोत्पादकान् भोगाकांक्षारूपान् शुद्धात्मभावनाविनाशकान् रागादिपरिणामानिति । अथवा द्वितीयव्याख्यानं —— कोऽपि सम्यग्दृष्टिर्जीवो निर्विकल्पसमाधेरभावात्, अशक्यानुष्ठानेन विषयकषायवचनार्थं यद्यपि व्रतशीलदानपूजादिशुभकर्मानुष्ठानं करोति तथापि भोगाकांक्षारूप निदानबंधेन तत्पुण्यकर्मानुष्ठानं न सेवते । तदपि पुण्यानुबंधिपुण्यकर्म भवांतरे तीर्थंकर - चक्रवर्ती — बलदेवाद्यभ्युदयरूपेणोदयागतमपि पूर्वभवभावितभेदविज्ञानवासनाबलेन शुद्धात्मभावनाविनाशकान् विषयसुखोत्पादकान् भोगाकांक्षानिदानरूपान् रागादिपरिणामान्न ददाति, भरतेश्वरादीनामिव । इति संज्ञा निजीवं प्रति व्यतिरेकदा - वांछाके विना कर्म किसलिये करे ? ऐसी आशंका दूर करनेको काव्य कहते हैंत्यक्तं इत्यादि । अर्थ - जिसने कर्मका फल तो छोड़ रखा हो और कर्म करता है। ऐसी तो हम प्रतीतिरूप नहीं कर सकते परंतु इसमें कुछ विशेषता है जो इस ज्ञानी के भी किसी कारण से कुछ कर्म इसके वश विना आपड़े हैं उनके आनेपर भी यह ज्ञानी निश्चल परमज्ञान स्वभावमें तिष्ठता कुछकर्म करता है या नहीं करता यह कोन जाने ? भावार्थ -- ज्ञानी के परवश कर्म आपड़े हैं उनके होनेपर भी ज्ञानी ज्ञानसे चलायमान नहीं होता उस अवस्था में यह ज्ञानी कर्म करता है कि नहीं यह नहीं मालूम होता यह बात कोन जान सकता है ज्ञानीकी बात ज्ञानी ही जानता है अज्ञानीकी सामर्थ्य ज्ञानीके परिणामको जानने की नहीं है । यहांपर ऐसा जानना कि ज्ञानी कहने से अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर ऊपरके सभी ज्ञानी हैं । उनमेंसे अविरत सम्यग्दृष्टि, देश विरत तथा आहार विहार करनेवाले मुनियोंके बाह्यक्रिया प्रवर्तती हैं तौभी अंतरंग मिध्यात्व के अभाव से तथा यथासंभव कषायके अभावसे वे क्रियायें उज्वल हैं । इसलिये उनकी उजलाईको वेही जानते हैं मिध्यादृष्टि उनकी उजलाईको नहीं जानता । मिध्यादृष्टि तो बहिरात्मा है बाहर से ही भला बुरा मानता है, अंतरात्माकी गति मिध्यादृष्टि क्या जानसकता है ? | आगे इसी अर्थके समर्थनरूप कहते हैं कि ज्ञानीके निःशंकित नामा गुण होता है उसीकी सूचनारूप काव्य कहतें हैं— सम्यग्दृष्टयः इत्यादि । अर्थ-यह साहस एक सम्यग्दृष्टि ही कर सकते हैं क्योंकि भयकर चलायमान जिसमें तीनलोक 1
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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