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________________ अधिकारः ६ ] तथाहिः समयसारः । बंधुवभोगणिमित्ते अज्झवसाणोदसु णाणिस्स । संसारदेहविसएसु णेव उप्पज्जदे रागो ॥ २१७ ॥ बंधापभोगनिमित्तेषु, अध्यवसानोदयेषु ज्ञानिनः । संसारदेहविषयेषु नैवोत्पद्यते रागः २१७ ॥ ३०७ इह खल्वध्यवसानोदयाः कतरेऽपि संसारविषयाः, कतरेपि शरीरविषयाः । तत्र यतरे संसारविषयाः ततरे बंधननिमित्ताः यतरे शरीरविषयास्ततरे तूपभोगनिमित्ताः । यतरे बंधनिमित्तास्ततरे रागद्वेषमोहाद्याः । यतरे तूपभोगनिमित्तास्ततरे सुखदुःखाद्याः । अथामीषु सर्वेष्वपि ज्ञानिनो नास्ति रागः । नानाद्रव्यस्वभावत्वेन टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावस्व कांक्षति न वांछति कदाचिदपि ॥ २१६ ॥ अथ तथैवापध्यानरूपाणि निष्प्रयोजनबंध निमित्तानि. शरीरविषये भोगनिमित्तानि च रागाद्यध्यवसानानि परमात्मतत्त्ववेदी न वांछति, इति प्रतिपादयति; — बंधुवभोगणिमित्तं अज्झवसाणोदयेसु णाणिस्स णेव उप्पज्जदे रागो स्वसंवेदनज्ञानिनो जीवस्य रागाद्युदयरूपेषु, अध्यवसानेषु बंधनिमित्तं भोगनिमित्तं वा नैवोत्पद्यते रागः । कथंभूतेष्वध्यवसानेषु ! संसारदेहविसएस निष्प्रयोजनबंधनिमित्तेषु संसारविषयेषु, भोगनिमित्तेषु देहविषयेषु वा । इदमत्र तात्पर्यं भोगनिमित्तं स्तोकमेव पापं करोत्ययं जीवः । निष्प्रयोजनापध्यानेन बहुतरं करोति शालिमत्स्यवत् । तथा चोक्तमध्यानलक्षणं आगे ऐसे सभी उपभोगोंसे ज्ञानीके वैराग्य है यह कहते हैं - [ बंधोपभोगनिमित्तेषु ] बंध और उपभोगके निमित्त जो [ अध्यवसानोदयेषु ] अध्यवसान के उदय हैं वे [ संसारदेहविषयेषु ] संसारविषयक और देहके विषय हैं उनमें [ ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [ रागः ] राग [ नैव उत्पद्यते ] नहीं उपजता ॥ टीकाइस लोकमें निश्चयकर जो अध्यवसानके उदय हैं वे कितने ही तो संसारविषय हैं और कितने ही शरीर विषय हैं । उनमेंसे जितने संसारविषय हैं उतने तो बंधके निमित्त और जितने शरीर के विषय हैं उतने उपभोगके निमित्त हैं । वहां जितने बंधके निमित्त हैं उतने तो राग द्वेष मोह आदिक हैं और जितने उपभोगके निमित्त हैं उतने सुखदुःखादिक हैं । अब कहते हैं कि इन सबमें ही ज्ञानीके राग नहीं है क्योंकि अध्यवसान नाना द्रव्यों का स्वभाव है उसपनेसे उस ज्ञानीके एक टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभावके उनका प्रतिषेध है ॥ भावार्थ – संसारदेहभोगसंबंधी रागद्वेषमोह सुख दुःखादिक अध्यवसानके उदय हैं वे नाना द्रव्य अर्थात् पुद्गल तथा जीवद्रव्य संयोगरूप हुए उनके स्वभाव हैं और ज्ञानीका एक ज्ञायक स्वभाव है इसलिये ज्ञानीके उनका प्रतिषेध है इसकारण
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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