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________________ ३०४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [निर्जरा-- तत्वादेव सन् परिग्रहभावं बिभर्ति । अनागतस्तु आकांक्ष्यमाण एव परिग्रहभावं बिभृयात् । प्रत्युत्पन्नस्तु स किल रागबुझ्या प्रवर्तमान एव तथा स्यात् । नच प्रत्युत्पन्नः कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनो रागबुद्ध्या प्रवर्तमानो दृष्टः, ज्ञानिनोऽज्ञानमयभावस्य रागबुद्धेरभावात् । वियोगबुद्ध्यैव केवलं प्रवर्तमानस्तु स किल न परिग्रहः स्यात् । ततः प्रत्युत्पन्नः कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनः परिग्रहो न भवेत् । अनागतस्तु स किल ज्ञानिनो न अनागतस्य निदानबंधरूपभाविभोगोदयस्याकांक्षां न करोति । किं च विशेषः । य एव भोगोपभोगादिचेतनाचेतनसमस्तपरद्रव्यनिरालंबनो भावपरिणामः स एव स्वसंवेदनज्ञानगुणो भण्यते । तेन ज्ञानगुणालंबनेन य एव पुरुषः ख्याति-पूजा-लाभभोगाकांक्षारूपनिदानबंधादिविभावरहितः सन् जगत्त्रये कालत्रयेऽपि मनोवचनकायैः कृतकारितानुमितैश्च विषयसुखानंदवासनावासितं चित्तं मुक्त्वा शुद्धात्मभावनोत्थवीतरागपरमानंदसुखेन वासितं रंजितं मूर्छितं परिणतं तन्मयं तृप्तं रतं संतुष्टं चित्तं कृत्वा वर्तते स एव मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलज्ञानाभेदरूपं परमार्थशब्दाभिधेयं साक्षान्मोक्षकारणभूतं शुद्धात्मसंवित्तिलक्षणं परमागमभाषया वीतरागधर्मध्यानशुक्लध्यानस्वरूपं स्वसंवेद्यशुद्धात्मपदं परमसमरसीभावेन अनुभवति न चान्यः । यादृशं परमात्मपदमनुभवति तादृशं परमात्मपदस्वरूपं मोक्षं लभते । कस्मात् ? इतिचेत्, उपादानकारणसदृशं कार्यं भवति यतः कारणात् इति । एवं स्वसंवेदनज्ञानगुणं विना मत्यादिपंचज्ञानविकल्परहि से अतीतकालका तो वीत ही गया इसलिये ज्ञानी परिग्रहभावको नहीं धारण करता; आगामीकालकी वांछा करे तब परिग्रह भावको धारे सो ज्ञानीके आगामी वांछा नहीं है इसलिये परिग्रहभावको नहीं धारता, जिस कमको ज्ञानी अपना अहित जानता है उसके उदयके भोगकी आगामी वांछा कैसे करसकता है ? और वर्तमानका उपभोग रागबुद्धिसे प्रवर्तमान हो तब परिग्रह भावको धारे सो ज्ञानीके वर्तमानका उपभोग रागबुद्धिकर प्रवर्तमान नहीं दीखता, क्योंकि ज्ञानीके अज्ञानमय भावरूप रागबुद्धिका अभाव है। केवल विराग बुद्धिकर ही प्रवर्तमान होना परिग्रह नहीं है क्योंकि ज्ञानीकी ऐसी बुद्धि है कि जिसका संयोग हुआ उसका वियोग अवश्य होगा इसलिये विनाशीकसे प्रीति नहीं करनी। इसकारण वर्तमान कर्मके उदयका उपभोग है वह ज्ञानीके परिग्रह नहीं है और आगामी कर्मके उदयको न चाहनेवाले ज्ञानीके अनागत उपभोग परिग्रह नहीं है क्योंकि ज्ञानीके अज्ञानमय भावरूप वांछाका अभाव है इसलिये अनागत भी कर्मके उदयका उपभोग ज्ञानीके परिग्रह नहीं है । भावार्थ-अतीत तो वीत ही गया, अनागतकी वांछा नहीं और वर्तमानमें राग नहीं है हेय जाने उसमें राग किसतरह होसकता है । इसलिये ज्ञानीके तीनों ही कालके कर्मके उदयका भोगना परि
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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