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________________ २९४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ निर्जरा हि । एतावत्येव सत्याशीः, यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव संतोषमुपैहि । एतावदेव सत्यमनुभवनीयं यावदेव ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव तृप्तिमुपैहि । अथैवं तव तन्नित्यमेवात्मरतस्य, आत्मसंतुष्टस्य, आत्मतृप्तस्य च वाचामगोचरं सौख्यं भविष्यति । तच तत्क्षण एव त्वमेव स्वयमेव द्रक्ष्यसि मा अन्यान् प्राक्षीः । “अचिंत्यशक्तिः स्वयमेव देवश्चिन्मात्रचिंतामणिरेव यस्मात् । सर्वार्थसिद्धात्मतया विधत्ते ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण ॥ १४४ " २०६ ॥ रदो णिचं संतुट्ठो होहि णिचमेदमि एदेण होहि तित्तो हे भव्य पंचेंद्रियसुखनिवृत्तिं कृत्वा निर्विकल्पयोगबलेन स्वाभाविकपरमात्मसुखे रतो भव संतुष्टो भव तृप्तो भव नित्यं सर्वकालं तो होहदि उत्तमं सुक्खं ततस्तस्मादात्मसुखानुभवनात् एतस्मिन् ] इस ज्ञानमें [नित्यं ] सदाकाल [ रतः भव ] रुचिसे लीन हो और [ एतस्मिन् ] इसीमें [ नित्यं ] हमेशा [ संतुष्टः भव ] संतुष्ट हो अन्य कोई कल्याणकारी नहीं है और [ एतेन ] इसीसे [ तृप्तः भव ] तृप्त हो अन्य कुछ इच्छा नहीं रहे ऐसा अनुभवकर ऐसा करने से [ तव ] तेरे [ उत्तमं सुखं ] उत्तम सुख [ भविष्यति ] होगा || टीका - हे भव्य इतने मात्र ही सत्य परमार्थस्वरूप आत्मा है जितना यह ज्ञान है । ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्र आत्मामें ही निरंतर रति रुचिको प्राप्त हो । इतनामात्र ही सत्यार्थ कल्याण है जितना यह ज्ञान है ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्र आत्मासे नित्य ही संतोषको प्राप्त हो नित्य ही तृप्तिको प्राप्त हो, और इतना ही सत्यार्थ अनुभव करने योग्य है जितना यह ज्ञान है ऐसा निश्चयकर ज्ञानमात्र ही आत्माकर नित्य तृप्तिको प्राप्त हो । इसतरह नित्य ही आत्मामें रत, आत्मामें संतुष्ट, आत्मा तृप्त होने से तेरे बचनके अगोचर नित्य उत्तमसुख होगा उस सुखको उसी समय स्वयमेव ही देखेगा | दूसरे से मत पूछे, यह सुख अपने अनुभवगोचर ही है दूसरेको क्यों पूछता है ॥ भावार्थ - ज्ञानमात्र आत्मामें लीन होना इसीसे संतुष्ट रहना इसी तृप्त होना यह परमध्यान है । इसीसे वर्तमान में आनंदरूप होता है और उसके बाद ही संपूर्ण ज्ञानानंदस्वरूप केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है । इस सुखको ऐसा पूर्वोक्त करनेवाला ही जानता है अन्यका इसमें प्रवेश नहीं है | अब इसकी महिमाको आगे के कथनकी सूचनास्वरूप कलशरूप काव्य कहते हैं - अचिंत्य इत्यादि । अर्थ-जिस कारण यह चैतन्यमात्र चिंतामणिवाला ऐसा ज्ञानी, स्वयमेव आप देव है । कैसा है ? कि जिसमें ऐसी शक्ति है जो किसीके विचार में नहीं आसकती । ऐसे ज्ञानीके सब प्रयोजन सिद्ध हैं ऐसे स्वरूप हुआ अन्य वस्तुके परिग्रहकर क्या करना ? कुछ भी नहीं करना ॥ भावार्थ - यह ज्ञानमूर्ति आत्मा अनंतशक्तिका धारक वांछितकार्य की सिद्धि
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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