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________________ २८४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ निर्जरामुंचति । ततोऽयं नियमात् ज्ञानवैराग्याभ्यां संपन्नो भवति । “सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं नादिगुणस्वरूप इति । अथ सम्यग्दृष्टिः स्वस्वभावं जानन् रागादींश्च मुंचन् नियमाज्ञानवैराग्यसंपन्नो भवति इति कथयति;-एवं सम्माइट्टी अप्पाणं मुणदि जाणगसहावं एवं पूर्वोक्तप्रकारेण सम्यग्दृष्टिर्जीवः आत्मानं जानाति । कथंभूतं ? टंकोत्कीर्णपरमानंदज्ञायकैक सिद्धांतमें पाप मिथ्यात्वको ही कहा है जहांतक मिथ्यात्व रहता है वहांतक शुभअशुभ सभी क्रियाओंको अध्यात्ममें परमार्थकर पाप ही कहा है और व्यवहारनयकी प्रधानतामें व्यवहारी जीवोंको अशुभ छुड़ाके शुभमें लगानेको किसीतरह पुण्य भी कहा है । स्याद्वादमतमें कोई विरोध नहीं है ॥ फिर कोई पूछे कि, परद्रव्यसे जबतक राग रहे तबतक मिथ्यादृष्टि कहा है सो इसको हम नहीं समझे क्योंकि अविरतसम्यग्दृष्टि आदिके चारित्रमोहके उदयसे रागादिभाव होते हैं उसके सम्यक्त्व किसतरह कहा है ? उसका . समाधान-यहां मिथ्यात्वसहित अनंतानुबंधीका राग प्रधानकरके कहा है, क्योंकि अपने परके ज्ञान श्रद्धानके विना परद्रव्यमें तथा उसके निमित्तसे हुए भावोंमें आत्मबुद्धि हो तथा प्रीति अप्रीति हो तब समझना कि इसके भेदज्ञान नहीं हुआ । मुनिपद लेकर व्रतसमिति भी पालता है वहांपर जीवोंकी रक्षा तथा शरीरसंबंधी यत्नसे प्रवर्तना अपने शुभभाव होना इत्यादि परद्रव्यसंबंधी भावोंकर अपना मोक्ष होना माने और परजीवोंका घात होना अयत्नाचाररूप प्रवर्तना अपना अशुभभाव होना इत्यादि परद्रव्योंकी क्रियासे ही अपने में बंध माने तबतक जानना कि इसके अपना परका ज्ञान नहीं हुआ। क्योंकि बंधमोक्ष तो अपने भावोंसे था परद्रव्य तो निमित्तमात्र था उसमें विपयेय माना, इसलिये परद्रव्यसेही भला बुरा मान रागद्वेष करता है तबतक सम्यग्दृष्टि नहीं है । और जबतक चारित्रमोहके रागादिक रहते हैं उनको तथा उनकर प्रेरित परद्रव्यसंबंधी शुभाशुभक्रियामें प्रवृत्तियोंको ऐसा मानता है कि यह कर्मका जोर है इससे निवृत्त होनेसे ही मेरा भला है । उनको रोगके समान जानता है, पीडा सही नहीं जाती तब उनका इलाज करनेरूप प्रवर्तता है तो भी इसके उनसे राग नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जो रोग मानें उसके राग कैसा ? उसके मैंटनेका ही उपाय करता है सो मैंटना भी अपने ही ज्ञानपरिणामरूप परिणमनसे मानता है । इसतरह परमार्थ अध्यात्मदृष्टिसे यहां व्याख्यान जानना । मिथ्यात्वके विना चारित्र मोहसंबंधी उदयके परिणामको यहां राग नहीं कहा, इसलिये सम्यग्दृष्टिके ज्ञान वैराग्यशक्तिका अवश्य होना कहा है । वहां मिथ्यात्वसहित रागको ही राग कहा गया है वह सम्यग्दृष्टिके नहीं हैं और जिसके मिथ्यात्वसहित राग है वह सम्यग्दृष्टि नहीं है। ऐसे भेदको सम्यग्दृष्टि ही जानता है । मिथ्यादृष्टिका अध्यात्मशास्त्रमें प्रथम तो प्रवेश ही नहीं है और जो प्रवेश
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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