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________________ २८२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [निर्जरामानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि, अनया दिशा अन्यान्यप्यूह्यानि । एवं च सम्यग्दृष्टिः स्खं जानन् रागं मुंश्च नियमाज्ज्ञानवैराग्याभ्यां संपन्नो भवति ॥ १९९॥ एवं सम्महिट्ठी अप्पाणं मुणदि जाणयसहावं । उदयं कम्मविवागं य मुअदि तचं वियाणंतो ॥२०॥ एवं सम्यग्दृष्टिः आत्मानं जानाति ज्ञायकस्वभाव । उदयं कर्मविपाकं च मुंचति तत्त्वं विजानन् ॥ २०॥ किं च-पुद्गलकर्मरूपो द्रव्यक्रोधस्तदुदयजनितो यश्चाक्षमारूपः स भावक्रोधः । इति व्याख्यान पूर्वमेव कृतं तिष्ठति । कथं ? इति चेत् पुग्गलपिंडो दव्वं तस्सत्तीभावकम्मंतु इत्यादि । एवमेव च क्रोधपदपरिवर्तनेन मानमायालोभरागद्वेषमोहकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनसंज्ञाषोडशसूत्राणि व्याख्येयानि । तेनैव प्रकारेणान्यान्यपि, असंख्येयलोकमात्रप्रमितानि विभावपरिणामस्थानानि वर्जनीयानीति ॥ १९९ ॥ अथ कथं तव स्वरूपं न भवतीति पृष्टे सति भेदभावनारूपेणोत्तरं ददाति; कह एस तुज्झ ण हवदि विविहो कम्मोदयफलविवागो। परवाणुवओगो णदु देहो हवदि अण्णाणी ॥ कथमेष तव न भवति विविधः कर्मोदयफलविपाकः । परद्रव्याणामुपयोगो न तु देहो भवति आपको परको जानता है । इस गाथामें परभावका विशेष राग कहा है, उसीतरह रागकी जगह पद पलटनेसे द्वेष मोह क्रोध मान माया लोभ कर्म नोकर्म मन वचन काय श्रोत्र चक्षु घ्राण रसन स्पर्शन ये पद रखकर सोलह सूत्रोंका व्याख्यान करना। और इसी उपदेशसे अन्यको भी विचार लेना। इसतरह सम्यग्दृष्टि अपनेको जानता हुआ रागको छोड़ता नियमसे ज्ञान वैराग्यकर सहित होता है ॥ १९९ ॥ ___ आगे इसी अर्थको सूचित करनेवाली गाथा कहते हैं;-[एवं ] इस तरह [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [आत्मानं] अपनेको [ज्ञायकस्वभावं ] ज्ञायकखभाव [जानाति ] जानता है [च] और [ तत्त्वं] वस्तुके यथार्थस्वरूपको [विजानन् ] जानता हुआ [उदयं ] कर्मके उदयको [कर्मविपाकं ] कर्मका विपाक जान उसे [ मुंचति] छोडता है ऐसी प्रवृत्ति करता है ॥ टीका-इसतरह सम्यग्दृष्टि, सामान्यकर तथा विशेषकर सभी परभावोंसे भिन्न होके टंकोल्कीर्ण एक ज्ञायकभावखभावरूप आत्माके तत्त्वको अच्छीतरह जानता है और उसप्रकार तत्त्वको अच्छी तरह जानताहुआ स्वभावका ग्रहण और परभावका त्यागकर उत्पन्नहुए अपने वस्तुपनेको फैलाता हुआ कर्मके उदयके विपाककर उत्पन्न हुए जो भाव उन सबको छोडता
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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