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________________ २८० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ निर्जरा वकः । “सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाशिमुक्त्या । यस्माद् ज्ञात्वा व्यक्तिकरमिदं तत्त्वतः स्वं परं च स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात् ॥ १३६ ॥” १९७ ॥ सम्यग्दृष्टिः सामान्येन खपरावेवं तावज्जानाति ; उदयविवागो विविहो कम्माणं वण्णिओ जिणवरेहिं । ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमिक्को ॥ १९८ ॥ उदयविपाको विविधः कर्मणां वर्णितो जिनवरैः । न तु ते मम स्वभावाः ज्ञायकभावस्त्वहमेकः ॥ १९८ ॥ णस्वामी नृत्यगीतादिप्रकरणव्यापारमकुर्वाणोऽपि प्रकरणरागसद्भावात् प्राकरणिको भवति । तथा परमतत्त्वज्ञानी सेवमानोप्यसेवको भवति । अज्ञानी जीवो रागादिसद्भावादसेवकोऽपि सेवक इति ॥१९७॥ अथ सम्यग्दृष्टिः सामान्येन खपरस्वभावमनेकप्रकारेण जानाति ; – उदयविवागो विविहो कम्माणं वणिदो जिणवरेहिं उदयविपाको विविधो नानाप्रकारः कर्मणां संबंधी वर्णितः कथितः, जिनवरैः ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमिक्को ते कर्मोदयप्रकारा कर्मभेदा मम स्वभावा न भवति इति । कस्मात् ? इति चेत्, टंकोहै कि दुकानके कार्यसंबंधी टोटा नफाका स्वामी वह धनका स्वामी ही है । नौकर व्यापारादिक क्रिया करता है तौभी स्वामीपनेके अभाव से उसके फलका भोक्ता नहीं होता, तथा धनका स्वामी कुछ व्यापारादिक नहीं करता है तौभी उसके स्वामीपनेसे टोटा फाके फलका भोगनेवाला होता है । उसी तरह संसार में साहकी तरह तो मिध्यादृष्टि जानना और चाकरके समान सम्यग्दृष्टि जानना || अब इसी अर्थका समर्थनरूप सम्यग्दृष्टिके भावोंकी प्रवृत्तिका कलशरूप काव्य कहते हैं— सम्य इत्यादि । अर्थसम्यग्दृष्टि के नियमसे ज्ञान और वैराग्यकी शक्ति होती है । क्योंकि यह सम्यग्दृष्टि अपने वस्तुपना यथार्थस्वरूपका अभ्यास करने को अपने स्वरूपका ग्रहण और परके त्यागकी विधिकर "यह तो अपना स्वरूप है और यह परद्रव्यका है ऐसे" दोनोंका भेद परमार्थसे जानकर अपने स्वरूप में तिष्ठता है और परद्रव्यसे सबतरह रागका योग छोड़ता है। सो यह रीति ज्ञान वैराग्यको शक्तिके विना नहीं होती ॥ १९७॥ आगे इस काव्यका अर्थरूप गाथा है वहां कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि प्रथम ही अपनेको और परको सामान्यसे तो ऐसे जानता है; - [ कर्मणां ] कर्मोंके [ उदद्यविपाकः ] उदयका रस [ जिनवरैः ] जिनेश्वर देवने [ विविधः ] अनेक तरहका [ वर्णितः ] कहा है [ते] वे कर्मविपाकसे हुए भाव [ मम स्वभावाः ] मेरा स्वभाव [ न तु ] नहीं हैं [ अहं तु ] मैं तो [ एक: ] एक [ ज्ञायकभावः ] ज्ञायकस्वभावस्वरूप
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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