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अधिकारः ४ ] समयसारः।
२४१ पक्के फले पतिते यथा न फलं बध्यते पुनवृतैः ।
जीवस्य कर्मभावे पतिते न पुनरुदयमुपैति ॥ १६८॥ यथा-खलु पक्कं फलं वृतात्सकृद्विश्लिष्टं सत् , न पुनर्वृतसंबंधमुपैति तथा कर्मोदयजो भावो जीवभावात्सकृद्विश्लिष्टः सन् , न पुनर्जीवभावमुपैति । एवं ज्ञानमयो रागाद्यसंकीर्णो भावः संभवति । "भावो रागद्वेषमोहैविना यो जीवस्य स्याद् ज्ञाननिवृत्त एव । रुंधन् सर्वान् दैव्यकर्मास्रवौघान् एषोऽभावः सर्वभावास्रवाणां ॥ १२१ ॥” १६८॥ पडिदे जह ण फलं वज्झदे पुणो विंटे यथा पके फले पतिते सति पुनरपि तदेव फलं ते न बध्यते । जीवस्स कम्मभावे पडिदे ण पुणोदयमुवेहि तथा तत्त्वज्ञानिनो जीवस्य सातासातोदयजनितसुखदुःखरूपकर्मभावे कर्मपर्याये पतिते गलिते निर्जीर्णे सति रागद्वेषमोहाभावात् पुनरपि तत्कर्म बंधं नायाति, नैवोदयं च । ततो रागाद्यभावात् शुद्धभावः संभवति । तत एव च सम्यग्दृष्टेर्जीवस्य निर्विकारस्वसंवित्तिबलेन संवरपूर्विका निर्जरा भवतीजैसे [फले ] वृक्ष तथा वेलिका फल [पके पतिते ] पककर गिरजाय वह [पुनः] फिर [ वृतैः ] गुच्छेसे [ न बध्यते ] नहीं बंधता उसीतरह [ जीवस्य ] जीवमें [कर्मभावे ] पुद्गलकर्मभावरूप [ पतिते ] पककर झड़जाय अर्थात् निर्जरा हो गई हो वह कर्म [पुनः] फिर [ उदयं ] उदय [न उपैति] नहीं होता ॥ टीकाजैसे निश्चयकर यह प्रगट है कि पकाहुआ फल गुच्छेसे एकवार गिरजाय तो वह फल फिर गुच्छेसे संबंधरूप नहीं होता उसीतरह कर्मके उदयसे उत्पन्नहुआ जो जीवका भाव वह एकवार भी जीवसे भिन्नहुआ फिर जीवभावको नहीं प्राप्त होता । इसतरह ज्ञानभाव रागादिकसे नहीं मिलाहुआ ही संभवता है ॥ भावार्थ-कर्मकी निर्जरा होनेके वाद वह कर्म फिर उदयमें नहीं आता तब ज्ञानमय ही भाव रहजाता है । इसतरह जब जीवका मिथ्यात्वकर्म अनंतानुबंधीसहित सत्तामेंसे क्षय हो जाता है तब फिर उदयमें नहीं आता तब ज्ञानी हुआ फिर कर्मका कर्ता नहीं होता । मिथ्यात्वके साथ रहनेवाली प्रकृतियां तो बंधतीं नहीं और अन्य प्रकृतिसामान्य संसारका कारण नहीं है । मूलसे कटेहुए वृक्षके हरे पत्ते के समान हैं वे शीघ्र ही सूखने योग्य हैं। इसप्रकार ज्ञानीका रागादिकसे नहीं मिला हुआ ज्ञानमय भाव संभवता है चारित्रमोहके उदयका राग अज्ञानमय नहीं गिनाजाता क्योंकि सम्यग्दृष्टिके उसका स्वामीपना नहीं है ॥ अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं-भावो इत्यादि। अर्थ-जो जीवका रागद्वेष मोहके विना भाव होता है वह भाव ज्ञानकर ही रचाहुआ है, यह भाव सब द्रव्यास्रवोंको रोकनेवाला है इसलिये सभी भावास्रवोंका अभाव कहना
१ सम्यक्त्वपूर्वः शुद्धस्वरूपानुभवः परिणामः । २ द्रव्यकर्मणां ज्ञानावरणादीनामात्रवः प्रतिसमयं धाराप्रवाहरूपतया आत्मप्रदेशैः सहान्योन्यानुगमः, तस्यौघान् ।
३१ समय०