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________________ [ पुण्यपाप २१८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अथोभयं कर्म प्रतिषेध्यं स्वयं दृष्टांतेन समर्थयते; जह णाम कोवि पुरिसो कुच्छियसीलं जणं वियाणित्ता। वज्जेदि तेण समयं संसग्गं रायकरणं च ॥ १४८॥ एमेव कम्मपयडी सीलसहावं हि कुच्छिदं णाउं । वजंति परिहरंति य तस्सं सग्गं सहावरया ॥ १४९॥ यथा नाम कश्चित्पुरुषः कुत्सितशीलं जनं विज्ञाय । वर्जयति तेन समकं संसर्ग रागकरणं च ॥ १४८॥ एवमेव कर्मप्रकृतिशीलस्वभावं च कुत्सितं ज्ञात्वा । वर्जयंति परिहरंति च तत्संसर्ग स्वभावरताः ॥१४९ ॥ यथा खलु कुशलः कश्चिद्वनहस्ती स्वस्य बंधाय उपसर्पन्ती चटुलमुखीं मनोरमाममनोरमां वा करेणुकुट्टिनी तत्त्वतः कुत्सितशीलां विज्ञाय तया सह रागसंसौ प्रतिषेधयति । प्रति निषेधं स्वयमेव श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवा दृष्टांतदा ताभ्यां समर्थयंति;-यथा नाम स्फुटमहो वा कश्चित्पुरुषः कुत्सितशीलं जनं ज्ञात्वा वजेदि तेण समयं संसग्गं रायकरणं च तेनसमकं सह बहिरंगवचनं कायगतं संसर्ग मनोगतं रागं च वर्जयतीति दृष्टांतः एमेव कम्मपयडी सीलसहावं हि कुच्छिदं णाएं एवमेव पूर्वोक्तदृष्टान्तन्यायेन कर्मणः प्रकृतिशीलं स्वभावं कुत्सितं हेयं ज्ञात्वा वजंति परिहरंति य तं संसग्गं सहावरदा आगे दोनों कर्मोंके निषेधको आप दृष्टांतसे दृढ करते हैं;-[यथा नाम ] जैसे [कोपि ] कोई [पुरुषः] पुरुष [कुत्सितशीलं ] निंदितस्वभाववाले [जनं] किसी पुरुषको [विज्ञाय] जानकर [तेन समकं] उसके साथ [संसर्ग] संगति [च रागकरणं] और राग करना [वर्जयति ] छोड़ देता है [ एवमेव च] इसी तरह ज्ञानी जीव [कर्मप्रकृतिशीलस्वभावं] कर्म प्रकृतियोंके शील स्वभावको [कुत्सितं ज्ञात्वा ] निंदने योग्य खोटा जानकर [ वर्जयंति ] उससे राग छोड़ देते हैं [च ] और [तत्ससंग] उसकी संगति भी [परिहरंति ] छोड़ देते हैं पश्चात् [खभावरताः ] अपने स्वभावमें लीन हो जाते हैं ॥ टीका-जैसे कोई चतुर वनका हाथी; अपने बंधनेके लिये समीप रहनेवाली, चंचलमुखको लीलारूप करती मनको रमानेवाली, सुंदर अथवा असुंदर हथिनीरूपी कुट्टिनीको बुरी समझ उसके साथ राग तथा संसर्ग ( समीप जाना) दोनों ही नहीं करता उसी तरह आत्मा भी राग रहित ज्ञानी हुआ अपने बंधके कारण समीप उदय आती शुभरूप अथवा अशुभरूप सभी कर्म प्रकृतियोंको परमार्थसे बुरी जानकर उनके साथ राग और संसर्ग नहीं करता ॥ भावार्थ-जैसे हाथीके पकड़नेको कोई कपटकी (नकली ) हथिनी दिखलावे तब हाथी कामांध हुआ उससे राग तथा संसर्गकर गड्डेमें पड़ पराधीन होके दुःख भोगता है,
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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