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________________ २०३ समयसारः । न तथा परस्य चितिद्वयोाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ७६ ॥ एकस्य जीवो न तथा परस्य चितिद्वयोविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिचिदेव ॥ ७७ ॥ एकस्य सूक्ष्मो न तथा परस्य चितिद्वयोविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ७८॥ एकस्य हेतुर्न तथा परस्य चितिद्वयोाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ७९ ॥ एकस्य कार्यं न तथा परस्य चितिद्वयोविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥८० ॥ एकस्य भावो न तथा परस्य चितिद्वयोविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिचिदेव ॥ ८१॥ एकस्य चैको न तथा परस्य चितिद्वयोधविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ८२॥ क्षायोपशमस्तु ज्ञानावरणीयक्षयोपशमजनितत्वात् । यद्यपि व्यवहारनयेन छद्मस्थापेक्षया जीवस्वरूपं भण्यते तथापि केवलज्ञानापेक्षयाशुद्धजीवस्वरूपं न भवति । तर्हि कथंभूतं जीवस्वरूपमिति चेत् । योसौ नयपक्षपातरहितस्वसंवेदनज्ञानी तस्याभिप्रायेण बद्धाबद्धमूढामूढादिनयविकऐसा है कि कर्मसे नहीं बंधा । इसतरह दो नयोंके दो पक्ष हैं । इसतरह दोनों नयोंका जिसके पक्षपात है वह तत्त्ववेदी नहीं है और जो तत्त्ववेदी ( तत्त्वका स्वरूप जाननेवाला ) है वह पक्षपातसे रहित है उस पुरुषका चिन्मात्र आत्मा चिन्मात्र ही है उसमें पक्षपातसे कल्पना नहीं करता ॥ भावार्थ-यहां शुद्धनयको प्रधानकर कथन है। वहां जीवनामा पदार्थको शुद्ध नित्य अभेद चैतन्य मात्र स्थापनकर कहते हैं कि जो इस शुद्ध नयका भी पक्षपात करेगा वह भी उस स्वरूपके स्वादको नहीं पायेगा । अशुद्ध पक्षकी तो क्या बात है शुद्ध नयका भी पक्षपात करेगा तो पक्षका राग नहीं मिटेगा तब वीतरागता नहीं होगी। इसलिये पक्षपातको छोड़ चिन्मात्रस्वरूपमें लीन होनेपर ही समयसारको पासकता है । चैतन्यके परिणाम परनिमित्तसे अनेक होते हैं उन सबको गौणकर कहा गया है । इसलिये सब पक्षको छोड़ शुद्धस्वरूपका श्रद्धानकर खरूपमें प्रवृत्तिरूपचारित्र होनेसे वीतराग दशा करनी योग्य है ॥ अब जैसे बद्ध अबद्ध पक्ष छुड़ाई थी उसीतरह अन्य पक्षको प्रगट कहकर छुड़ाते हैं ॥ एकस्य इत्यादि अर्थ-एक नयका यह पक्ष है कि जीव मोही है और दूसरी नयका यह पक्ष है कि मोही नहीं है । इसतरह ये दोनों ही चैतन्यमें पक्षपात हैं। जो तत्त्ववेदी है वह पक्षपातरहित है उसके चित चित ही है मोही अमोही नहीं है ॥ एकस्य इत्यादि । अर्थएक नयका तो ऐसा पक्ष है की यह जीव रागी है और दूसरी नयका ऐसा पक्षपात है कि रागी नहीं है। सो ये दोनों ही चैतन्यमें नयके पक्षपात हैं। जो तत्त्ववेदी है
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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