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________________ समयसारः । १४७ पुद्गलकर्म, यस्तु मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादि जीवः स मूर्तात्पुद्गलकर्मणोऽन्यश्चैतन्यपरिणामस्य विकारः॥८८॥ मिथ्यादर्शनादिचैतन्यपरिणामस्य विकारः कुत इति चेत् ; उवओगस्स अणाई परिणामा तिण्णि मोहजुत्तस्स । मिच्छत्तं अण्णाणं अविरदिभावो य णायव्वो ॥८९॥ उपयोगस्यानादयः परिणामास्त्रयो मोहयुक्तस्य । मिथ्यात्वमज्ञानमविरतिभावश्च ज्ञातव्यः ॥ ८९॥ उपयोगस्य हि स्वरसत एव समस्तवस्तुस्वभावभूतस्वरूपपरिणामसमर्थत्वे सत्यनादिवस्त्वंतरभूतमोहयुक्तत्वान्मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरिति त्रिविधः परिणामविकारः। सतु तस्य स्फटिउपयोगरूपो भावरूपः शुद्धात्मादितत्त्वभावविषये विपरीतपरिच्छित्तिविकारपरिणामो जीवस्याज्ञानं निर्विकारस्वसंवित्तिविपरीतत्रतपरिणामविकारोऽविरतिः । विपरीताभिनिवेशोपयोगविकाररूपं शुद्धजीवादिपदार्थविषये विपरीतश्रद्धानं मिथ्यात्वमिति जीवः । जीव इति कोर्थः । जीवरूपा भावप्रत्यया इति ॥ ८८ ॥ अथ शुद्धचैतन्यस्वभावजीवस्य कथं मिथ्यादर्शनादिविकारो जात इति चेत् ;-उवओगस्य अणाई परिणामा तिणि उपयोगलक्षणत्वादुपयोग आत्मा तस्य संबंधित्वेनादिसंतानापेक्षया त्रयः परिणामा ज्ञातव्याः । कथंभूतस्य तस्य । मोहजुत्तस्स मोहयुक्तस्य । के ते परिणामाः । मिच्छत्तं अण्णाणं अविरदिभावो य णावो मिथ्यात्वमज्ञानमविरतिभावश्चेति ज्ञातव्य इति । तथाहि-यद्यपि शुद्धनिश्चयनयेन मिथ्यात्व [तु जीवः ] ये जीव हैं वे [उपयोगः] उपयोग हैं । टीका-जो निश्चयकर मिथ्यादर्शन अज्ञान अविरति इत्यादि अजीव हैं अमूर्तीक चैतन्यके परिणामसे अन्य हैं मूर्तीक हैं वे तो पुद्गलकर्म हैं और जो मिथ्यादर्शन अज्ञान अविरति इत्यादि जीव हैं वे मूर्तीक पुद्गलकर्मसे अन्य हैं चैतन्यपरिणामके विकार हैं ॥ ८८॥ फिर पूछते हैं कि जीव मिथ्यात्वादि चैतन्यपरिणामका विकार किस कारण है उसका उत्तर कहते हैं;-[मोहयुक्तस्य ] अनादिसे मोहयुक्त होनेसे [ उपयोगस्य] उपयोगके [ अनादयः] अनादिसे लेकर [त्रयः परिणामाः] तीन परिणाम हैं वे [मिथ्यात्वं ] मिथ्यात्व [अज्ञानं ] अज्ञान [च अविरतिभावः ] और अविरतिभाव ये तीन [ज्ञातव्यः] जानने ॥ टीका-निश्चयकर समस्त वस्तुओंका अपने स्वरसपरिणमनसे स्वभावभूत स्वरूपपरिणाममें समर्थपना होनेपर भी आत्माके उपयोगके अनादिसे ही अभ्य वस्तुभूत मोहसहितपनेसे मिथ्यादर्शन अज्ञान अविरति ऐसे तीन प्रकार परिणामके विकार हैं। सो ये " जैसे स्फटिकमणिकी स्वच्छतामें परके डंकसे परिणामविकार हुआ देखा जाता है" उसीतरह हैं । यही प्रगटकर कहते हैं । जैसे स्फटिककी स्वच्छताके अपना स्वरूप उज्वलतारूप परिणामकी सामर्थ्य होनेपर भी
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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