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________________ समयसारः। १४५ वाभ्यां भाव्यमानत्वाजीवाजीवौ । तथाहि-यथा नीलकृष्णहरितपीतादयो भावाः खद्रव्यस्वभावत्वेन मयूरेण भाव्यमानाः मयूर एव । यथा च नीलहरितपीतादयो भावाः स्वच्छताविकारमात्रेण मुकुरंदेन भाव्यमाना मुकुरंद एव । तथा मिथ्यादर्शनमज्ञानमविअथ तस्यैव विशेषव्याख्यानं करोति; पुग्गलकम्मणिमित्तं जह आदा कुणदि अप्पणो भावं । पुग्गलकम्मणिमित्तं तह वेददि अप्पणो भावं ॥ पुद्गलकर्मनिमित्तं यथात्मा करोति आत्मनः भावं । पुद्गलकर्मनिमित्तं तथा वेदयति आत्मनो भावं पुग्गलकम्मणिमित्तं जह आदा कुणदि अप्पणो भावं उदयागतं द्रव्यकर्मनिमित्तं कृत्वा यथात्मा निर्विकारस्वसंवित्तिपरिणामशून्यः सन्करोत्यात्मनः संबंधिनं सुखदुःखादिभावं परिणाम पुग्गलकम्मणिमित्तं तह वेददि अप्पणो भावं तथैवोदयागतद्रव्यकर्मनिमित्तं लब्ध्वा स्वशुद्धात्मभावनोत्थवास्तवसुखास्वादमवेदयन्सन् तमेव कर्मोदयजनितस्वकीयरागादिभावं वेदयत्यनुभवति । न च द्रव्यकर्मरूपपरभावमित्यभिप्रायः । अथ चिद्रूपानात्मभावानात्मा करोति तथैवाचिद्रूपान् द्रव्यकर्मादिपरभावान् परः पुद्गलः करोतीत्याख्याति;मिच्छत्तं पुण दुविहं जीवमजीवं मिथ्यात्वं पुनर्द्विविधं जीवस्वभावमजीवस्वभावं च तहेव अण्णाणं अविरदि जोगो मोहो कोधादिया इमे भावा तथैव चाज्ञानमविरतिर्योगो मोहः क्रोधादयोऽमी भावाः पर्यायाः जीवरूपा अजीवरूपाश्च भवंति दृष्टि है वहांपर आशंका होती है कि यह मिथ्यात्वादि भाव क्या वस्तु है ? यदि जीवके परिणाम कहे जांय तो पहले रागादि भावोंको पुद्गलके परिणाम कहे थे उस कथनसे यहां विरोध आता है । और जो पुद्गलके परिणाम कहे जांय तो जीवका कुछ प्रयोजन नहीं इसलिये फिर उसका फल जीव क्यों पावै ? इस शंकाके दूर करनेको कहते हैं;पहली गाथामें दो क्रियावादीको मिथ्यादृष्टि कहा था उसके संबंध करनेको पुनः शब्द है यही कहते हैं। [पुनः ] जो [मिथ्यात्वं ] मिथ्यात्व कहा गया था वह [द्विविधं ] दो प्रकार है [जीवं अजीवं] एक जीवमिथ्यात्व एक अजीवमिथ्यात्व [ तथैव ] और उसीतरह [अज्ञानं] अज्ञान [ अविरतिः] अविरति [योगः ] योग [मोहः ] मोह और [क्रोधाद्याः] क्रोधादि कषाय [ इमे भावाः ] ये सभी भाव जीव अजीवके भेदकर दो दो प्रकार हैं ॥ टीका-मिथ्यादर्शन अज्ञान अविरति इत्यादिक जो भाव हैं वे प्रत्येक जुदे २ मयूर और दर्पणकी तरह जीव अजीवकर भावित हैं इसलिये जीव भी हैं और आजीव भी हैं। यही कहते हैंजैसे मयूरके नीले काले हरे पीले आदि वर्णरूप भाव हैं वे मयूरके निजस्वभावकर भाये हुए मयूर ही हैं । तथा जैसे दर्पणमें उन वर्गों के प्रतिबिंब दीखते हैं वे दर्पणकी स्वच्छता निर्मलताके विकारमात्रकर भाये हुए दर्पण ही हैं। मयूरकी और दर्पणकी अत्यंत भिनता है । उसीतरह मिथ्यादर्शन अज्ञान अविरति इत्यादिक भाव हैं वे अपने अजीवके १९ समय.
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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