SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । अथैनं दूषयति; जदि पुग्गलकम्ममिणं कुव्वदि तं चेव वेदयदि आदा । दो किरियावादित्तं पसजदि सम्मं जिणावमदं ॥ ८५॥ यदि पुद्गलकर्मेदं करोति तचैव वेदयते आत्मा । द्विक्रियाव्यतिरिक्तः प्रसजति स जिनावमतं ॥ ८५ ॥ इह खलु क्रिया हि तावदखिलापि परिणामलक्षणतया न नाम परिणामतोस्ति भिन्ना, परिणामोपि परिणामपरिणामिनोरभिन्नवस्तुत्वात्परिणामिनो न भिन्नस्ततो या काचन क्रिया किल सकलापि सा क्रियावतो न भिन्नेति क्रियाकौरव्यतिरिक्ततायां वस्तुस्थित्या प्रतपत्यां यथा व्याप्यव्यापकभावेन स्वपरिणामं करोति, भाव्यभावकभावेन तमेवानुभवति च एवं व्यवहारेण सुखदुःखकर्तृत्वभोक्तृत्वकथनमुख्यतया गाथा गता । इति ज्ञानिजीवस्य विशेषव्याख्यानरूपेणैकादशगाथाभिर्द्वितीयांतराधिकारो व्याख्यातः । अतः परं पञ्चविंशतिगाथापर्यंत द्विक्रियावादिनिराकरणरूपेण व्याख्यानं करोति । तत्र चेतनाचेतनयोरेकोपादनकर्तृत्वं द्विक्रियावादित्वमुच्यते तस्य संक्षेपव्याख्यानरूपेण जदिपुग्गलकम्ममिणं इत्यादि गाथाद्वयं भवति । तद्विवरणद्वादशगाथासु मध्ये पुग्गलकम्मणिमित्तं इत्यादिगाथाक्रमेण प्रथमगाथाषटुं स्वतंत्रं । तदनंतरमज्ञानिज्ञानिजीवकर्तृत्वाकर्तृत्वमुख्यतया परमप्पाणं कुव्वदि इत्यादिद्वितीयषटुं । अतः परं तस्यैव द्विक्रियावादिनः पुनरपि विशेषव्याख्यानार्थमुपसंहाररूपेणैकादशगाथा भवंति । तत्रैकादशगाथासु मध्ये व्यवहारनयमुख्यत्वेन आगे इस व्यवहारको दूषण देते हैं;-[ यदि ] जो [आत्मा ] आत्मा [इदं] इस [पुद्गलकम ] पुद्गलकर्मको [करोति ] करे [च ] और [तत् एव] उसीको [वेदयते ] भोगे तो [ सः ] वह [विक्रियाव्यतिरिक्तः ] आत्मा दो क्रियासे अभिन्न [प्रसजति ] ठहरे ऐसा प्रसंग आता है सो यह [जिनावमतं] जिनदेवका मत नहीं है । टीका-इस लोकमें जो क्रिया है वह पहले तो सभी परिणामस्वरूप है इसकारण परिणाम ही है कुछ भिन्न वस्तु नहीं है और परिणाम तथा परिणामी द्रव्य दोनों अभिन्न वस्तु हैं जुदे जुदे वस्तु नहीं हैं इसलिये परिणाम परिणामीसे जुदा नहीं है । इससे यह सिद्ध हुआ कि जो कुछ क्रिया है वह क्रियावान् द्रव्यसे जुदी नहीं है । इस तरह क्रियाका और क्रियावानका अभेदपना है । ऐसी वस्तुकी मर्यादा होनेपर जैसा जीव व्याप्यव्यापक भावकर अपने परिणामको करता है और भाव्य भावक भावकर उसी अपने परिणामको अनुभवता है भोगता है उसीतरह व्याप्य व्यापक भावकर पुद्गल कर्मको भी करे तथा भाव्य भावक भावकर उसीको अनुभवे भोगे तो अपनी और परकी मिली दो क्रियाओंका अभेद सिद्ध हुआ। ऐसा होनेपर अपने और परके भेदका अभाव हुआ। इसतरह अनेक द्रव्यस्वरूप एक आत्माको
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy