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________________ ..... समयसारः । ... , खपरिणामैरेव सह कर्तृकर्मभावो भोक्तभोग्यभावश्च ॥ ८०॥८१॥ ८२ ॥ .... णिच्छयणयस्य एवं आदा अप्पाणमेव हि करेदि । वेदयदि पुणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्ताणं ॥ ८३ ॥ निश्चयनयस्यैवमात्मात्मानमेव हि करोति । वेदयते पुनस्तं चैव जानीहि आत्मा त्वात्मानं ॥ ८३ ॥ यथोत्तरंगनिस्तरंगावस्थयोः समीरसंचरणासंचरणनिमित्तयोरपि समीरपारावारयोर्व्याप्यब्यापकभावाभावात्कर्तृकर्मत्वासिद्धौ पारावार एव स्वयमंतापको भूत्वादिमध्यांतेषूत्तरंगनिस्तरंगावस्थे व्याप्योत्तरंगं निस्तरंगं त्वात्मानं कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभाति न पुनरन्यत् । यथा स एव च भाव्यभावकभावाभावात्परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वादुत्तरंगं निस्तरंगं त्वात्मानमनुभवन्नात्मानमेकमेवानुभवन् प्रतिभाति न पुनरन्यत् । तथा संमिति । एवं जीवपुद्गलपरस्परनिमित्तकारणव्याख्यानमुख्यत्वेन गाथात्रयं गतं ॥ ८० ॥ ८१ ॥ ॥ ८२ ॥ अथ तत एतदायाति-जीवस्य स्वपरिणामैरेव सह निश्चयनयेन कर्तृकर्मभावो भोक्तभोग्यभावश्च भवति-णिच्छयणयस्य एवं आदा अप्पाणमेव हि करेदि यथा यद्यपि समीरो निमित्तं भवति तथापि निश्चयनयेन पारावार एव कल्लोलान् करोति परिणमति च । एवं यद्यपि द्रव्यकर्मोदयसद्भावासद्भावात् शुद्धाशुद्धभावयोनिमित्तं भवति तथाएि निश्चयेन निर्विकारपरमस्वसंवेदनज्ञानपरिणतः केवलज्ञानादिशुद्धभावान् तथैवाशुद्धपरिणतस्तु सांसारिकपरस्पर कर्तृकर्मभाव नहीं है । परके निमित्तसे जो अपने भाव हुए थे उनका कर्ता तो अज्ञानदशामें कदाचित् कह भी सकते हैं लेकिन परभावका कर्ता कभी नहीं होसकता ॥ ८०॥ ८१ ॥ ८२ ॥ - आगे कहते हैं कि इस हेतुसे यह सिद्धा हुआ कि जीवका अपने परिणामोंके ही साथ कर्तृकर्मभाव और भोक्तभोग्य भाव है;-[निश्चयनयस्य ] निश्चयनयका [एवं ] यह मत है कि [आत्मा ] आत्मा [आत्मानं एव हि ] अपनेको ही [करोति] करता है [तु पुनः] फिर [आत्मा] वह आत्मा [तं चैव आत्मानं] अपनेको ही [ वेदयते ] भोगता है ऐसा हे शिष्य ! तू [जानीहि] जान ॥ टीका-वहां प्रथम दृष्टांत-जैसे पवनका चलना और न चलना जिनको निमित्त है ऐसी समुद्रकी तरंगोंका उठना और विलय होनारूप दो अवस्था उनके पवन और समुद्रके व्याप्य व्यापक भावके अभावसे कर्ता कर्मपनेकी असिद्धि होनेपर समुद्र ही आप उन अवस्थाओमे अंतर्व्यापक होके आदि मध्य अंतमें उन अवस्थाओंमें व्यापकर उत्तरंगनिस्तरंगरूप अपनेको एकको ही करता हुआ प्रतिभासता है किसी दूसरेको नहीं करता है । उसी तरह वही समुद्र उस पवन और समुद्रके भाव्यभावक भावके अभावसे परभावको परकर अनुभव करनेके असमर्थपनेसे उत्तरंगनिस्तरंगखरूप अपनेको ही अनुभवता हुआ १८ समय.
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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