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________________ १२६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । भावमभयादास्तिनुवानः परं । अज्ञानोत्थितकर्तृकर्मकलनात् क्लेशान्निवृत्तः स्वयं ज्ञानीभूत इतश्चकास्ति जगतः साक्षी पुराणः पुमान् ॥” ७४ ॥ कथमात्मा ज्ञानीभूतो लक्ष्यत इति चेत् ; कम्मस्स य परिणामं णोकम्मस्स य तहेव परिणामं । ण करेइ एयमादा जो जाणदि सो हवदि णाणी ॥७५ ॥ कदाचित्पुनः निर्विकल्पसमाधिपरिणामाभावे सति विषयकषायवंचनार्थं शुद्धात्मभावनासाधनार्थ बहिर्बुद्धया ख्यातिपूजालाभभोगाकांक्षानिदानबंधरहितः सन् शुद्धात्मलक्षणार्हत्सिद्धशुद्धात्माराधकप्रतिपादकसाधकाचार्योपाध्यायसाधूनां गुणस्मरणादिरूपं शुभोपयोगपरिणामं च करोति । अस्मिनर्थे दृष्टांतमाहुः । यथा कश्चिद्देवदत्तः स्वकीयदेशांतरस्थितस्त्रीनिमित्तं तत्समीपागतपुरुषाणां सन्मानं करोति, वातां पृच्छति, तत्स्त्रीनिमित्तं तेषां स्वीकारं स्नेहदानादिकं च करोति । तथा सम्यग्दष्टिरपि शुद्धात्मस्वरूपोपलब्धिनिमित्तं शुद्धात्माराधकप्रतिपादकाचार्योपाध्यायसाधूनां गुणस्मरणं दानादिकं च स्वयं शुद्धात्माराधनारहितः सन् करोति । एवमज्ञानीसज्ञानीजीवस्वरूपव्याख्याने कृते सति पुण्यपापादिसप्तपदार्था जीवपुद्गलसंयोगपरिणामनिर्वृत्ता इति पीठिकाव्याख्यानं घटते । नास्ति विरोधः । एवं सज्ञानीजीवव्याख्यानमुख्यत्वेन गाथाचतुष्टयं गतं । इति पुण्यपापादिसप्तपदार्थपीठिकाधिकारे गाथाषट्रेन प्रथमांतराधिकारो व्याख्यातः ॥ ७४ ॥ अतः परं यथाक्रमेणैऐसे आस्रवकी निवृत्तिका और ज्ञानके होनेका एक काल जानना । इस आस्रवका अभाव और संवरका होना गुणस्थानोंकी परिपाटीरूप तत्त्वार्थ सूत्रकी टीका आदि सिद्धांत ग्रंथों में है वहांसे जान लेना यहां सामान्य प्रकरण है इसलिये सामान्य कर कहा है । और यहां विज्ञानघन स्वभाव होना कहा सो जहांतक मिथ्यात्व है वहांतक तो ज्ञानको अज्ञान कहा जाता है और मिथ्यात्व जानेके वाद अज्ञान मना नहीं है विज्ञान संज्ञा है। वह ज्ञान कर्मके क्षय तथा उपशमकी अपेक्षा हीन अधिक होता है सो जैसी जैसी आस्रवोंकी निवृत्ति होती है वैसा वैसा ज्ञान बढता जाता है उसीका विज्ञान नाम कहा जाता है। थोडा ज्ञान मिथ्यात्वके विना अज्ञान नहीं कहा जासकता ऐसा जानना ॥ अब इसी अर्थका कलशरूप तथा आगेके कथनकी सूचनारूप काव्य कहते हैं। इत्येवं इत्यादि । अर्थ-इसके वाद पुराण पुरुष आत्मा जगतका साक्षीभूत, ज्ञाता, द्रष्टा आप ही ज्ञानी हुआ प्रकाशमान होता है । वह इसतरह है-पहले कही हुई रीतिसे परद्रव्यसे उत्कृष्ट सब प्रकार निवृत्तिकर और विज्ञान घन स्वभावरूप केवल अपने आत्माको निःशंक आस्तिक्यभावरूप स्थिरीभूत करता हुआ अज्ञानसे हुई कर्ता कर्मकी प्रवृत्तिके अभ्याससे हुए केशोंसे निवृत्त हुआ प्रकाशमान होता है ॥ ७४ ॥ आगे पूछते हैं कि ऐसा आत्मा ज्ञानी हुआ कैसे पहचाना जा सकता है उसके चिह्न
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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