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________________ १२३ समयसारः । दिवत्पारमार्थिकों वस्तुविशेषोस्मि तदहमधुनास्मिन्नेवात्मनि निखिलपरद्रव्यप्रवृत्तिनिवृत्त्या निश्चलमवतिष्ठमानः सकलपरद्रव्यनिमित्तकविशेषचेतनचंचलकल्लोलनिरोधेनेममेव चेतयमानः स्वाज्ञानेनात्मन्युत्प्लवमानानेतान् भावानखिलानेव क्षपयामीत्यात्मनि निश्चित्य चिरसंगृहीतमुक्तपोतपात्रः समुद्रावर्त्त इव झगित्येवोद्वांत समस्त विकल्पोऽकल्पितमचलितममलमात्मानमालं मानो विज्ञानघनभूतः खल्वयमात्मास्रवेभ्यो निवर्त्तते ॥ ७३ ॥ कथं ज्ञानास्रवनिवृत्त्योः समकालत्वमिति चेत्; जीवणिबद्धा एए अधुव अणिच्चा तहा असरणा य । दुक्खा दुक्खफलात्ति य णादूण वित्तए तेहिं ॥ ७४ ॥ जीवनिबद्धा एते अध्रुवा अनित्यास्तथा अशरणाश्च । - दुःखानि दुःखफला इति च ज्ञात्वा निवर्त्तते तेभ्यः ॥ ७४ ॥ जतुपादपवद्वध्यघातकस्वभावत्वाज्जीवनिबद्धाः खल्वास्रवाः, न पुनरविरुद्धस्वभावत्वाभावाजीव एव । अपस्माररयवद्वर्द्धमानहीयमानत्वादध्रुवाः खल्वास्रवाः ध्रुवश्चिन्मात्रो जीव मात्मपदार्थ पृथग्भूतांस्तान् कामक्रोधाद्यास्त्रवान् क्षयं विनाशं नयामि प्रापयामीत्यर्थः ॥ ७३ ॥ अथ यस्मिन्नेव काले स्वसंवेदनज्ञानं तस्मिन्नेव काले रागाद्यास्रवनिवृत्तिरिति समानकालत्वं दर्शयति ;एदे जीवणिवद्धा एते क्रोधाद्यास्रवा जीवेन सह निबद्धा संबद्धा औपाधिकाः । न पुनः है इसकारण सामान्यविशेष स्वरूप जो ज्ञान दर्शन उनकर पूर्ण हूं | ऐसा आकाशादि द्रव्यकी तरह परमार्थ स्वरूप वस्तुविशेष हूं । इसलिये मैं इसी आत्मस्वभाव में समस्त परद्रव्यसे निवृत्तिकर निश्चल तिष्ठता हुआ समस्त परद्रव्यके निमित्तसे जो विशेषरूप चैतन्यमें चंचल कल्लोलें होतीं थीं उनके निरोधसे इस चैतन्यस्वरूपको ही अनुभवता . हुआ अपने ही अज्ञानकर आत्मामें उत्पन्न जो ये क्रोधादिक भाव उन सबको क्षयको प्राप्त करता हूं ऐसा आत्मा में निश्चय कर तथा जैसे बहुत कालका ग्रहण किया जो जिहाज था वह जिसने छोड़ दिया है ऐसे समुद्रके भमर की तरह शीघ्र ही दूर किये हैं समस्त विकल्प जिसने ऐसा निर्विकल्प अचलित निर्मल आत्माको अवलंबन करता विज्ञान घन हुआ यह आत्मा आस्रवोंसे निवृत्त होता है ॥ भावार्थ- शुद्धनयकर ज्ञानीने आत्माका ऐसा निश्चय किया कि मैं एक हूं शुद्ध हूं परद्रव्यसे निर्ममत्व हूं ज्ञान दर्शनकर पूर्ण वस्तु हूं सो जब ऐसे अपने स्वरूप में तिष्ठनेसे उसीका अनुभवरूप हो . तब क्रोधादिक आस्रव क्षय हो सकते हैं । जैसे समुद्र के आवर्तने बहुतकालसे जिहाजको पकड़ रक्खाथा पीछे किसी कालमें आवर्त पलटै तब जिहाजको छोड़ देता है उसीतरह आत्मा आस्रवोंको छोड़ देता है ॥ ७३ ॥ आगे पूछते हैं कि ज्ञान होनेका और आस्रवोंकी निवृत्तिका समकाल किसतरह है ? उसका उत्तररूप गाथा कहते हैं; - [ एते ] ये आस्रव हैं वे [ जीवनिबद्धाः ]
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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