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________________ ११२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । वर्गणास्पर्द्धकाध्यात्मस्थानानुभागस्थानयोगस्थानबंधस्थानोदयस्थानमार्गणास्थानस्थितिबंधस्थानसंक्लेशस्थानविशुद्धस्थानसंयमलब्धिस्थानान्यपि पुद्गलपूर्वकत्वे सति नित्यमचेतनत्वात्पुद्गल एव न तु जीव इति स्वयमायातं । ततो रागादयो भावा न जीव इति सिद्धं । तर्हि को जीव इति चेत् । “अनाद्यनंतमचलं स्वसंवेद्यमिदं स्फुटं । जीवः वयं तु चैतन्यमुच्चैश्चकचकायते ॥४१॥ वर्णाद्यैः सहितस्तथा विरहितो द्वधास्त्यजीवो यतो नामूर्त्तत्वमुपास्य निश्चयेन चेतनानि तथापि शुद्धनिश्चयेन नित्यं सर्वकालमचेतनानि । अशुद्धनिश्चयस्तु वस्तुतो यद्यपि द्रव्यकर्मापेक्षयाभ्यंतररागादयश्चेतना इति मत्वा निश्चयसंज्ञां लभते तथापि शुद्धनिश्चयास्वयं ( अपने आप ) सिद्धहुआ इसलिये रागादिकभाव जीव नहीं हैं ऐसा भी सिद्ध हुआ ॥ भावार्थ-पुद्गलकर्मके उदयके निमित्तसे हुए चैतन्यके विकार भी पुद्गल ही हैं क्योंकि शुद्धद्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिमें चैतन्य अभेदरूप है और इसके परिणाम भी स्वाभाविक शुद्ध ज्ञान दर्शन हैं इसकारण परनिमित्तसे जो विकार होते हैं वे चैतन्यसरीखे दीखते हैं तौभी चैतन्यकी सर्व अवस्थाओं में व्यापक नहीं हैं इसलिये चैतन्य शून्य (जड़) हैं। इसतरह जो जड़ है वह पुद्गल है ऐसा निश्चय हुआ ॥ आगे पूछते हैं कि वर्णादिक और रागादिक जीव नहीं हैं तो जीव कौन है ? उसका उत्तररूप श्लोक कहते हैं। अनाद्य इत्यादि । अर्थ-जीव है वह चैतन्य है यह अपने आप अतिशयकर चमकाररूप प्रकाशमान है । अनादि है किसी समयमें नया नहीं उत्पन्न हुआ। अनंत है जिसका किसी कालमें विनाश नहीं है । अचल है चैतन्यपनेसे अन्यरूप (चलाचल) कभी नहीं होता । स्वसंवेद्य है, आपही कर जाना जाता है और प्रगट है छिपाहुआ नहीं है ॥ आगे दूसरे लक्षणके अव्याप्ति अतिव्याप्ति दूषणोंको दूर करनेलिये काव्य कहते हैं- वर्णायैः इत्यादि । अर्थ-यदि जीवका लक्षण अमूर्तीकपना कहा जाय तो अजीवपदार्थ भी दो प्रकार है धर्म अधर्म आकाश काल-ये तो वर्णादिभावसे रहित हैं और पुद्गल वर्णादिसहित है इसलिये अमूर्तीकपनेको ग्रहणकर लोक जीवके यथार्थस्वरूपको नहीं देखता । इसमें अतिव्याप्ति दोष आता है। वर्णादिकसे रागादिका भी ग्रहण है सो रागादिक जीवका लक्षण कहा जाय तो उनकी व्याप्ति पुद्गलसे ही है जीवकी सब अवस्थाओं में व्याप्ति नहीं इसलिये अव्याप्ति दोष आता है। इसतरह भेदज्ञानी पुरुषोंने परीक्षाकर अतिव्याप्ति अव्याप्ति दोषसे रहित चेतनपना ही लक्षण कहा है वही ठीक है। उसीने जीवका यथार्थस्वरूप प्रगट किया है । जीवसे कभी चलाचल नहीं है सदा मौजूद है । इसलिये जगत् इसी लक्षणको अवलंबन करे इसीसे यथार्थ जीवका ग्रहण होता है ॥ आगे ऐसे लक्षणकर जीव प्रगट है तो भी अज्ञानी लोकोंको इसका अज्ञान किसतरह रहता है ? उसको आचार्य आश्चर्य तथा खेदसहित कहते हैंजीवाद इत्यादि । अर्थ-इसतरह पूर्वकथित लक्षणसे जीवसे अजीव भिन्न है सो ज्ञानीजन उसे अपने आप प्रगट उघडता अनुभव करते हैं तौभी अज्ञानी जनोंके यह
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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