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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । जीवसंज्ञात्वेनोक्ताः अप्रयोजनार्थः परप्रसिद्ध्या घृतघटवद्व्यवहारः । यथा हि कस्यचिदाजन्मप्रसिद्धैकघृतकुंभस्य तदितरकुंभानभिज्ञस्य प्रबोधनाय योऽयं घृतकुंभः स मृण्मयो न घृतमय इति तत्प्रसिद्ध्या कुंभे घृतकुंभव्यवहारः तथास्याज्ञानिनो लोकस्य संसारप्रसियाशुद्धजीवस्य शुद्धजीवानभिज्ञस्य प्रबोधनाय योयं वर्णादिमान् जीवः स ज्ञानमयो न वर्णादिमयः इति तत्प्रसिद्ध्या जीवे वर्णादिमद्व्यवहारः । " घृतकुंभाभिधानेपि कुंभो कथिताः सूक्ष्मबादराश्चैव ये कथिताः देहस्स जीवसण्णा सुत्ते ववहारदो उत्ता पर्याप्तापर्याप्तदेहं दृष्ट्वा पर्याप्ता पर्याप्तबादर सूक्ष्मविलक्षणपरमचिज्ज्योतिर्लक्षणशुद्धात्म स्वरूपात्पृथग्भूतस्य देहस्य सा जीवसंज्ञा कथिता । क, सूत्रे परमागमे । कस्मात्, व्यवहारादिति नास्ति दोषः । एवं जीवस्थानानि जीवस्थानाश्रिता वर्णादयश्च निश्चयेन जीवस्वरूपं न भवतीति कथनरूपेण ११० [ ये चैव ] और जो [ सूक्ष्मा बादराश्च ] सूक्ष्म बादर आदि जितनी [ देहस्य ] देहकी [ जीवसंज्ञाः ] जीवसंज्ञा कहीं हैं वह सभी [ सूत्रे ] सूत्र में [ व्यवहारतः ] व्यवहारनयकर [ उक्ताः ] कहीं हैं ।। टीका – निश्चयकर यह जानना कि बादर सूक्ष्म एकेंद्रिय द्वींद्रिय त्रींद्रिय चतुरिंद्रिय पंचेंद्रिय पर्याप्त अपर्याप्त ऐसे शरीरको सूत्र में जीवसंज्ञापनेकर कहा है । वहां परकी प्रसिद्धिकर घृतके घडेकी तरह व्यवहार 1 । यह व्यवहार अप्रयोजनभूत है । उसको प्रगट कहते हैं— जैसे कोई पुरुष ऐसा था कि जिसने जन्म से लेकर घीका ही घड़ा देखाथा घृतसे रीता जुदा घट नहीं देखा उसके समझानेके लिये ऐसा कहते हैं कि यह घृतका घट है वह मट्टीमय है घृतमय नहीं है ऐसे उस पुरुषके घृतके घटकी प्रसिद्धिसे समझानेवाला भी घृतका घट कहता ऐसा व्यवहार है । उसीतरह इस अज्ञानी लोकके अनादि संसारसे लेकर अशुद्ध जीव ही प्रसिद्ध है शुद्ध जीवको नहीं जानता उसको शुद्ध जीवका ज्ञान करानेके लिये ऐसा सूत्रमें कहा है कि यह वर्णादिमान् जीव कहा जाता है वह ज्ञानमय है वर्णादिमय नहीं है इसतरह उस अज्ञानी लोकके वर्णादिमान् प्रसिद्ध है । उस प्रसिद्धिकर जीव वर्णादिमानका व्यवहार सूत्रमें किया है। अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं । घृतकुंभा । इत्यादि । अर्थ- घृतका कुंभ है ऐसा कहने पर भी कुंभ है वह घृत नहीं है मृत्तिकाहीका है उसीतरह जीव वर्णादिमान् है ऐसा कहमेपर भी वर्णादिमान् नहीं है ज्ञानघनही है । भावार्थ - जिसने पहले घटको मृत्तिकाका नहीं जाना और घृत भरे घटको लोक घृतका घट कहते हैं ऐसा सुना वहां यही जाना कि घट घृतका ही कहा जाता है उसको समझानेके लिये मृत्तिकाका घट जाननेवाला मृत्तिकाका घट कहकर समझाता है । उसीतरह ज्ञानस्वरूप आत्माको तो जिसने जाना नहीं और वर्णादिकके संबंधरूप ही जीवको जाना उसके समझानेकों सूत्रमें भी कहा है कि यह वर्णादिमान् है सो जीव है ऐसा व्यवहार है निश्चयसे वर्णादिमान् पुद्गल है जीव नहीं है । जीव
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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