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________________ समयसारः । वसानादिभावाः । ततो न ते चिदन्वयविभ्रमप्यात्मस्वभावाः किंतु पुद्गलस्वभावाः॥४५॥ यद्यध्यवसानादयः पुद्गलस्वभावास्तदा कथं जीवत्वेन सूचिता इति चेत् ; ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं । जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा ॥ ४६॥ व्यवहारस्य दर्शनमुपदेशो वर्णितो जिनवरैः । जीवा एते सर्वेऽध्यवसानादयो भावाः ॥ ४६॥ सर्वे एवैतेऽध्यवसानादयो भावाः जीवा इति यद्भगवद्भिः सकलज्ञैः प्रज्ञप्तं तदभूतार्थस्यापि व्यवहारस्यापि दर्शनं । व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिप्याकुलत्वोत्पादकदुःखलक्षणास्ततः कारणात्पुद्गलकार्यत्वात् शुद्धनिश्चयनयेन पौद्गलिका इति ॥ ४५ ॥ अष्टविधं कर्म पुद्गलद्रव्यमेवेति कथनरूपेण गाथा गता । अथ यद्यध्यवसानादयः पुद्गलस्वभावास्तहि रागी द्वेषी मोही जीव इति कथं जीवत्वेन ग्रंथांतरे प्रतिपादिता इति प्रश्ने प्रत्युत्तरं ददाति;-ववहारस्स दरीसणं व्यवहारनयस्य स्वरूपं दर्शितं यत्किं कृतं । उवएसो वण्णिओ जिणवरेहिं उपदेशो वर्णितः कथितो जिनवरैः । कथंभूतः । जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा जीवा एते सर्वे अध्यवसानादयो भावाः परिणामा भण्यंत इति । किं च विशेषः । यद्यप्ययं व्यवहारनयो बहिर्द्रव्यावलंबत्वेनाभूतार्थस्तथापि रागादिदुःखरूप भाव है वह अध्यवसान है इसलिये दुःखरूप भावमें चेतनपनेका भ्रम उपजता है । परमार्थसे दुःखरूपभाव चेतन नहीं है कर्मजन्य है इस कारण जड ही है ॥ ४५ ॥ ___ आगे पूछता है कि ये अध्यवसानादि भाव हैं वे पुद्गलस्वभाव हैं तो सर्वज्ञके आगममें इनको जीवके भावकर कैसे कहा ? उसके उत्तरका गाथासूत्र कहते हैं;-[एते सर्वे] ये सब [ अध्यवसानादयः भावाः ] अध्यवसानादिक भाव हैं [ जीवाः ] वे जीव हैं ऐसा [जिनवरैः] जिनवरदेवने [उपदेशः वर्णितः] जो उपदेश दिया है वह [व्यवहारस्य दर्शनं] व्यवहारनयका मत है । टीका-ये सब अध्यवसानादिक भाव 'जीव हैं। ऐसा जो भगवान् सर्वज्ञदेवने कहा है वह अभूतार्थ असत्यार्थरूप जो व्यवहारनय उसका मत है । क्योंकि व्यवहार व्यवहारी जीवोंको परमार्थका कहनेवाला है। जैसे म्लेच्छभाषा म्लेच्छोंको वस्तुस्वरूपको बतलाती है उसीतरह यह नय है । इसलिये अपरमार्थभूत होनेपरभी धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति करनेके लिये व्यवहारनयका वर्णन होना ठीक है । उस व्यवहारको नहीं कहैं और परमार्थनय जीवको शरीरसे भिन्न कहता है उसका ही एकांत किया जाय तो त्रस स्थावर जीवोंका घात निःशंकपनेसे करना सिद्ध होसकता है। जैसे भस्मके मर्दन करनेमें हिंसाका अभाव है उसीतरह उनके मारनेमें भी हिंसा नहीं सिद्ध होगी किंतु हिंसाका अभाव ठहरेगा तब उनके घात होनेसे बंधका भी अभाव ठहरेगा। और उसीतरह रागी द्वेषी मोही जीव कर्मसे बंधता है उसको छुड़ाना
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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