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________________ श्रुतानुसरणमन्तरेणापि विकल्पपरम्परापूर्वकविविधवचनप्रवृत्तिदर्शनात् । अर्थ-जो अवग्रह आदि श्रुतके उपर आश्रित है वह संकेत कालमें श्रुतका अनुसरण करता है पर व्यवहार काल में उसका अनुसरण नहीं करता । अभ्याससे श्रुत का अनुसरण न करके अनेक प्रकार के विकल्पों के द्वारा वचनों के बोलने में प्रवृत्ति देखी जाती है इस लिये आपकी आपत्ति युक्त नहीं है। विवेचना-संकेतकाल में जिन शब्दों का ज्ञान हुआ है उनके संस्कार से ईहा आदि उत्पन्न होते हैं-इस कारण वे श्रुतनिश्रित कहलाते हैं। परन्तु व्यवहार काल में अवग्रह आदि शब्द का अनुसरण नहीं करते। जिन लोगों को पूर्व काल में संकेत का ज्ञान हुआ है और जिन्होंने श्रुत ग्रन्थका अध्ययन किया है वे लोग व्यवहार काल में ये शब्द वाचक हैं और यह अर्थ वाच्य है इस रीति से विकल्प नहीं करते। श्रुत ग्रन्थमें इस अर्थ का कथन इस रीति से है इत्यादि विकल्प करके भी वे ग्रन्थों का अनुसरण नहीं करते । अत्यन्त अभ्यास के कारण संकेत का और श्रत ग्रन्थका अनुसरण किये बिना भी बोलने में प्रवृत्ति होती है । अभ्यास कालमें ईहा, अपाय, और धारणा शब्द सहित होते हैं परन्तु संकेत और श्रुत ग्रन्थ का अनुसरण नहीं करते। इस लिये वे सब मति ज्ञान हैं, वे श्रुत नहीं हैं। मूलम्-अङ्गोपाङ्गादौ शब्दाधवग्रहणे च श्रुता.
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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