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________________ ध्यान देना चाहिये, अन्यतरत्व धम यद्यपि अनुगत है, परन्तु उसके द्वारा बाह्य इन्द्रिय और आत्मा में एक भावास्मकधमे की प्रतीति नहीं होती । इस धर्म के द्वारा बाह्य इन्द्रिय और आत्मा वास्तव में एक रूप नहीं हो सकते । इस कारण अन्यतरत्व रूप धर्म को लेकर दोनों प्रत्यक्षों में पारमार्थिक भावात्मक धर्म की प्रतीति नहीं हो सकती । जो प्रकृत दो पदार्थों से भिन्न अखिल पदार्थ हैं उनसे भिन्न होना यही अन्यतरत्व है। इस लक्षण के अनुसार बाह्य इन्द्रिय और आत्मा ये दो प्रकृत पदार्थ हैं-उनसे भिन्न अखिल संसार है, उससे भिन्न यही दोनों प्रकृत पदार्थ हैं। इस रीति से प्रकृत वस्तुओं में अन्य पदार्थों से भेद रूप अन्यतरत्व समान धर्म है । भेद रूप समान धर्म को लेकर भावात्मक अनुगत धर्म की प्रतीति नहीं होती । एक प्रत्यक्षइन्द्रिय से जन्य है और दूसरा आत्मा से जन्य है, इस कारण इन दोनों में भेद ही है । जो भेद है उसी को लेकर अनुगत धर्म का निरूपण वास्तव में भावात्मक अनुगत धम का निरूपण नहीं है, इसलिये ग्रन्थकार पूज्य उपा० श्री यशोविजयजी महाराज दोनों प्रत्यक्षों में अन्य रोति से अनुगत भावात्मक धर्म का निरूपण करते हैं-- मूलम्-यतो व्युत्पत्तिनिमित्तमेवैतत् , प्रवृत्तिनिमित्तं तु एकार्थसमवायिनाऽनेनोपलक्षितं स्पष्टतावत्त्वमिति । स्पष्टता चानुमानादिभ्योऽतिरेकेण विशेषप्रकाशनमित्यदोषः ।। अर्थ--उत्पत्ति के लिये इन्द्रिय के प्रति अथवा जीव के प्रति आश्रित होना यह प्रत्यक्ष पद का व्युत्पत्ति
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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