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________________ २६ प्रतीति के लिये किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती। सुख आदि के समान ज्ञान स्वप्रकाश है। वह ज्ञान यदि दाह आदि की शक्तियों के समान शक्ति रूप हो जाय तो द्रव्यार्थ को अपेक्षा से प्रत्यक्ष कहा जा सकता है पर स्वसवेद्य नहीं बन सकता । आत्मा प्रत्यक्ष है और शक्तिमान है । प्रत्यक्ष आत्मा से अभिन्न होने के कारण अतीन्द्रिय शक्तियाँ आत्मा के रूप में प्रत्यक्ष कही जा सकती हैं, पर वे ज्ञान के समान स्वप्रकाश स्वभाव को नहीं धारण कर सकतीं । जब तक शक्ति स्व प्रकाश नहीं है, तब तक आत्मा से अभिन्न होने पर भी वह स्वप्रकाश रूप प्रमाण नहीं हो सकती। इस पक्ष में अन्य दोष भी है-इसको प्रकट करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं मलम्-'ज्ञानेन घटं जानामि' इति करणोल्लेखानुपपत्तेश्व, न हि कलशसमाकलनवेलायां द्रव्याथतः प्रत्यक्षाणामपि कुशूलकपालादोनामुल्लेखोऽस्तीति। अर्थ-अर्थ ग्रहण की शक्ति यदि प्रमाण हो तो “मैं ज्ञान के द्वारा घट को जानता हूँ" इस रीति से घट की प्रतीति में ज्ञान का उल्लेख करणरूप से नहीं होना चाहिए । जिस काल में घट का ज्ञान होता है उस काल में द्रव्यार्थ की अपेक्षा से कुशूलकपाल आदि प्रत्यक्ष हैं तो भी उनका उल्लेख प्रत्यक्ष रूप से नहीं होता। विवेचना-घट आदि के प्रत्यक्ष में घट आदि का ज्ञान फल रूप है उसमें ज्ञान का उल्लेख करणरूप से होता है यह
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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