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________________ प्रकाशक ज्ञान से भिन्न नहीं है । ज्ञान एक ही है वह पर अथ का प्रकाशक होनेसे प्रमाण है और अपने स्वरूप का प्रकाशक होनेसे फल है। पर अर्थ के प्रकाशक और अपने स्वरूप के प्रकाशक दो ज्ञान नहीं हैं। यदि दोनों ज्ञान भिन्न होते, तो दोनों के विषय भिन्न होते। परंतु ज्ञान एक है अवस्था के भेद से वही प्रमाण और फल के रूप में हो जाता है। एक विषय का होना प्रमाण के करण होने में और प्रमा के फल होने में बाधक नहीं है, किन्तु साधक है। जहाँ करण होता है, वहीं फल होता है। जिस स्थान पर करण है उससे भिन्न स्थान पर फल नहीं उत्पन्न होता । कुल्हाडी का जिस काष्ठ के साथ सम्बन्ध है वहीं छेदन होता है। जिस काष्ठ के साथ कुल्हाडी का सम्बन्ध नहीं है उसका छेदन नहीं होता। प्रमाण रूप ज्ञान का जिस विषय के साथ संबंध है उसी विषय का प्रकाशन होता है इस लिये ज्ञान प्रमाण है आर फल रूप भी है। जो ज्ञान विषय का प्रकाशक है वही अपने स्वरूप का भी प्रकाशक है। विषय का प्रकाशक होने के कारण ज्ञान प्रमाण हो जाता है इसलिये विषय का प्रकाशन फल है। जो ज्ञान पहले विषय का प्रकाशक नहीं था वही विषय के साथ सम्बन्ध होने पर विषय का प्रकाशक बन गया। एक हो ज्ञान का दो अवस्थाओं के साथ संबंध हो गया, परन्तु इससे ज्ञान का स्वाभाविक रूप नहीं बदला। ज्ञान जिस प्रकार अपने शुद्ध स्वरूप को प्रकाशित करता है इस प्रकार विषय के प्रकाशक रूप को भी प्रकाशित करता है। इस प्रकार विषय का प्रकाशक होने के कारण ज्ञान प्रमाण है और विषय के प्रकाशन रूप में भी होने के कारण फल भी है। प्रमाणभाव और फलभाव एक ज्ञान की दो अवस्थाए हैं। अवस्थाओं के भेद से ज्ञान सर्वथा भिन्न नहीं हो जाता।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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