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________________ इस वस्तु को ग्रंथकार ने इन शब्दों में प्रकट किया है। मूलम्-परोक्ष बुद्ध्यादिवादिनां मीमांसकादीनाम् , बाह्यार्थापलापिनां ज्ञानाद्यद्वैतवादिनां च मतनिरासाय स्वपरेति स्वरूपविशेषणार्थमुक्तम् । ___ अर्थ-बुद्धि परोक्ष है, इस मत के माननेवाले मीमांसक आदि के और बाह्य अर्थ का निषेध करने वाले ज्ञान आदि के अद्वैतवादियों के मत का निषेध करने के लिये 'स्व-पर' यह विशेषण है। यहां पर यह विशेषण स्वरूप विशेषण के रूप में कहा गया है। विवेचना-स्व पर' यह विशेषण 'स्वरूप विशेषण' हैं। विशेषण दो प्रकार का होता है स्वरूप विशेषण और व्यावर्तक विशेषण । वस्तु के स्वरूप को प्रकट करने के लिये वस्तु के धर्मों का वर्णन किया जाता है । वस्तु के धर्म दो प्रकार के होते हैं। सामान्य और विशेष । सामान्य धर्म सजातीय और विजातीय वस्तुओं में भी होते हैं। किसी वस्तु में सामान्य धर्म हैं तो उनके ज्ञान से वस्तु में उनकी सत्ता का ज्ञान होता है। इसके अतिरिक्त कोई फल उनके ज्ञान से नहीं होता। सूर्य की किरण शुक्ल है। किरण विशेष्य है और शुक्ल विशेषण है । किरण का वर्ण शुक्ल है इतना इस विशेषण से प्रतीत होता है, इसलिये यह स्वरूप का बोधक विशेषण है । जब पट को शुक्ल कहा जाता है तब पट में शुक्ल वर्ण की सत्ता का ज्ञान ही नहीं होता। शुक्ल पट नील रक्त आदि पटों से भिन्न
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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