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________________ नैयायिकों के मत का भी 'स्त्र और पर' विशेषण ते यहां निराकरण हुआ है । नैयायिक ज्ञान को परोक्ष नहीं मानते । वे ज्ञान का प्रत्यक्ष स्वीकार करते हैं। पर वे ज्ञान को स्वप्रकाशक नहीं मानते । न्यायमतके अनुसार ज्ञान, वक्ष आदि परभूत अर्थ का प्रकाशक है और उम ज्ञान का प्रत्यक्ष भी हो सकता है उसके अनुमान को आवश्यकता नहीं है, परन्तु वह स्वय अपने स्वरूप को प्रकाशित नहीं करता। घडे को देखने के अनन्तर में घडे को जानता हूं इस प्रकार का ज्ञान उत्पन्न होता है। इस ज्ञान को अनुव्यवसाय कहते हैं। अनुव्यवसाय से घट और उसके ज्ञान का प्रकाशन होता है। ज्ञान को स्व प्रकाश कहने वाले जैन कहते हैं-यदि घट के समान ज्ञान को प्रत्यक्ष करने के लिये दूसरे ज्ञान को प्रावश्यकता हो तो दूसरे ज्ञान को प्रत्यक्ष करने के लिये तीसरे ज्ञान की आवश्यकता होगी । इस प्रकार जो भी ज्ञान होगा उसको प्रत्यक्ष करने के लिये अन्य ज्ञान आवश्यक हो जायगा इस रीति से अनवस्था होगी। जिसके कारण प्रथम ज्ञान भी प्रत्यक्ष न हो सकेगा । इस तत्त्व को सूचित करने के लिये प्रमाण के लक्षण में 'स्व पर' पद हैं । सूर्य दीपक आदि का प्रकाश जब किसी अर्थ को प्रकाशित करता है तब प्रकाश को प्रकाशित करने के लिये किसी अन्य प्रकाश की अपेक्षा नहीं होती। ज्ञान भी जब अर्थ को प्रकाशित करता है तब ज्ञान को प्रकाशित करने के लिये किसी दूसरे ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। ज्ञान प्रकाश के समान स्व प्रकाश है। इसके अतिरिक्त नैयायिक जगत् के कर्ता परमेश्वर के ज्ञान को समस्त अर्थों का जिस प्रकार प्रकाशक मानते है इस प्रकार अपने स्वरूप का भी प्रकाशक मानते है । यदि
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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