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________________ आदि देवभावसे विशिष्ट जीवके प्रति ही कारण है। उपाध्यायजी स्वयं उक्तमतमें दोषका प्रतिपादन इस रीतिसे कहते हैं- जो मनुष्य देव जीवका कारण हैं उसको द्रव्य देव कहा जा सकता है, पर द्रव्य जीव नहीं कहा जा सकता। घट का कारण होने से मृत्पिडको द्रव्य घट कहते हैं. द्रव्य पृथिवी नहीं कहते। जो मनुष्य जीव है वह स्वयं अजीव होकर जीवका कारण नहीं हैं इसलिए सामान्य जीवकी अपेक्षा द्रव्य जीव नहीं कहा जा सकता । मनुष्य और देवमें कार्य कारणभाव होनेसे सामान्य जीवको अपेक्षा किसी अर्थ में कार्यकारणभाव नहीं सिद्ध होता । अतः सामान्य जीवकी अपेक्षासे जीवके विषयमें द्रव्य निक्षेप नहीं हो सकता। इस कारण जो निक्षेपमें अव्यापकता है उसको मानना चाहिए । जीव क्या, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय भी इस प्रकार के अर्थ जिनमें द्रव्य निक्षेप नहीं हो सकता। यदि कोई इस प्रकार का अर्थ हो जो स्वयं धर्मास्तिकायके रूपमें न हो और धर्मास्तिकायका कारण हो तो वह द्रव्य धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है। परन्तु इस प्रकारका अर्थ नहीं है, अतः धर्मास्तिकावमें द्रव्य निक्षेप नहीं हो सकता। अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकायमें भी इसी प्रकार द्रव्य निक्षेप नहीं हो सकता । कुछ अर्थोमें किसी निक्षेपके न होने पर भी प्रायः सब अर्थों में चारों निक्षेप हो सकते हैं इसलिए इसको व्यापक कहा गया है।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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