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________________ ४९ मम्-किठच, इन्द्रादिसम्झामा तदर्थरहितमिन्द्रादिशब्दवा च्यं वा नामेच्छन् अयं भावकारणस्वाविशेषात् कुतो नाम द्रव्यस्थापनेनेच्छेत् । प्रत्युत सुतरां तदभ्युपगमो न्याय्यः। इन्द्रमूर्तिलक्षणद्रव्य-विशिष्ट तदाकाररूपस्थापनयोरिन्द्रपर्यायरूपे भावे तादात्म्यसंबन्धेनावस्थितत्वात्तत्र वाच्य-वाचकभाव सम्बन्धेन संबद्धान्ना म्नोऽपेक्षया सन्निहिततरकारणत्वात् । अर्थः और भी, यह जुसूत्र केवल इन्द्र आदि संक्षा रूप माम को अथवा इन्द्र आदि के भर्थ से रहित इन्द्र आदि शब्द के द्वारा पाच्य वस्तु रूप नाम को मानता है तो भाव का कारण होने में कोई मेद न होनेसे द्रव्य और स्थापना को क्यों नहीं मानेगा ? उलटा उसका मानना अधिक उचित है। इन्द्र भूर्तिरूप द्रव्य और इन्द्रका विशिष्ट आकार रूप स्थापना ये दोनों इन्द्र पर्याय रूप भावमें तादात्म्य संबंधसे रहते है, पर नाम वाच्यवाचक संबंध से रहता है, इस लिए नामकी अपेक्षा द्रष्य और स्थापना भावके अधिक निकट कारण हैं। विवेचना-ऋजुसूत्र नामको स्वीकार करता है यह आप भी मानते हैं । नाम दो प्रकारका हो सकता हैं केवल इन्द्र आदि संज्ञा रूप अथवा इन्द्र के मुख्य अर्थसे रहित पर इन्द्र शब्द से वाध्य गोपाल का बालक मादि वस्तुरूप है । ये दोनों प्रकार के नाम भावके कारण हैं इस लिए इनको ऋजुसूत्र स्वीकार करता है।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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