SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञान के बिना विषय और विषय के बिना ज्ञान नहीं प्रतित होता । ज्ञान के अतिरिक्त अन्य कोई इस प्रकार का अर्थ नहीं है। जो अपने आपको भी प्रकाशित करे और दूसरे को भी प्रकाशित करे। स्व और पर को प्रकाशित करना ज्ञान का असाधारण स्वरूप है। जब ज्ञान का प्रकाशन यथार्थ होता है तब उसको व्यवसायि कहते हैं । स्व और पर का व्यवसायी ज्ञान प्रमाण होता है। मूलम्-अत्र दर्शनेऽतिव्याप्ति वारणाय ज्ञानपदम् । अर्थ-इस लक्षण में ज्ञानपद दर्शन नामक बोध में अति व्याप्ति को दूर करने के लिये है। विवेचना-अनेक जैन ताकिक बोध को उपयोग कहते हैं और उपयोग के दो विभाग करते हैं । दशन और ज्ञान, ये दो उपयोग के भेद हैं । विशेष धर्मों के प्रकाशन से शून्य,केवल सामा. न्य को प्रकाशित करने वाला बोध दर्शन कहा जाता है। श्री 'वाविदेवसूरि' इम बोध को प्रमाण रूप नहीं मानते। ग्रंथकारने जो प्रमाण का लक्षण किया है वह भी 'वादिदेवसूरि' का है। इस लिये उनके मत के अनुसार ग्रंथकार यहां पर ज्ञानपद के द्वारा दर्शन में अतिव्याप्ति का निवारण करते हैं। वे कहते हैं—'अत्र दर्शनेऽतिव्याप्ति वारणाय ज्ञानपदम् ।' श्री वादिदेवसूरि ने 'स्याद्वाद रत्नाकर' में ज्ञानपद का एक अन्य प्रयोजन भी प्रकट किया है। अक्षपातीय न्याय के अनुगामी इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष को प्रमाण मानते हैं। उनके अनुसार सन्निकर्ष ज्ञान की उत्पत्ति का साधन है, अतः प्रमाण है । जैन तर्क के अनुसार प्रमाण सदा ज्ञानात्मक ही
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy