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________________ २१ 1 भाव नहीं होना चाहिए, परन्तु यह इनमें है । जिस अर्थ का कोई भी नाम है उसमें नाम की सत्ता है । जो स्वर्ग का अधिपति नहीं है, केवल नाम से इन्द्र है वह इन्द्र नाम से कहा जाता है | जिसमें इन्द्र की स्थापना की गई हो उसको भी लोग इन्द्र कहते हैं । जो किसी काल में अर्थात् आगामी भव में इन्द्र होने वाला हो उसको भी इन्द्र कहा जाता है । जो अभी युवराज है, कुछ काल के पीछे राजा बननेवाला है उसको पहले से ही राजा कहने लगते हैं । यदि नाम का स्वरूप, स्थापना और द्रव्यका विरोधी होता तो स्थापना और द्रव्य के साथ नाम का संबन्ध न होता । भावेन्द्र में भी यद्यपि नाम का संबंध विद्यमान है, परन्तु भावेन्द्र का जो वर्तमान पर्याय है वह नाम स्थापना और द्रव्य में नहीं है । स्वर्ग पर शासन भावेन्द्र का असाधारण स्वरूप है । वह नाम, स्थापना और द्रव्य इन्द्रों में नहीं पाया जाता, इस लिए भावेन्द्र का नार्मेंद्र आदि से भेद है । जिस पर्याय के कारण द्रव्य भाव होता है वह पर्याय नाम स्थापना और द्रव्य में नहीं है । इस लिए भाव और नाम आदि का भेद है । नाम का स्वरूप जिस प्रकार नाम में है इस प्रकार स्थापना और द्रव्य में भी है इसलिए इसमें भेद नहीं हो सकता । 1 भाव स्वरूप अर्थ से रहित होना यह स्थापना का असाधारण स्वरूप है, यह भी नाम आदि तीनों में है । अन्य कोई इस
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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