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अर्थ-बक्ता जिस क्रियाकी विवक्षा करता है उसकी अनुभूतिसे युक्त जो स्वतस्त्व निक्षिप्त किया जाता हैं वह भाव निक्षेप है जैसे इंन्दन आदि क्रिया में परिणत होनेवाला भावेन्द्र है ।
जो भवन को प्राप्त होता है वह भाव है। किसी पर्याय के रूप में परिणत होना भवन है । जो पर्याय अनुभव में आ रहा है उससे युक्त वस्तुका स्वरूप जब प्रतिपादित किया जाता है तब भाव निक्षेप होता है । जो इन्दन करता है वह इन्द्र है - इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो जीव स्वर्ग लोक में शासन करता है वह भावेन्द्र हैं । वस्तु का जो असाधारण स्वरूप है वह उसका स्वतत्त्व है । असाधारण स्वरूपसे परिणाम प्राप्त अर्थ भाव है। मृत् पिंड का घट के आकार में परिणाम हो तो उसको घट कहा जाता है। मध्य में गोल हो, ग्रीवा का भाग संकुचित और गोल हो और ऊपर की ओर हो तो घट के रूप में परिणाम होने के कारण घट व्यवहार होता है । इस प्रकार के आकार में परिणत मृत् पिंडरूप अर्थ भावघट है। अर्थ का वर्तमान काल में जो पर्याय है वह भाव है । यह इस प्रकार फलित होता है ।
मूलम् :- ननु भाववर्जितानां नामादीनां कः प्रतिविशेषस्त्रिष्वपि वृत्त्यविशेषात् १, तथाहि - नाम तावन्नामवति पदार्थ स्थापनायां द्रव्ये चाविशेषेण वर्तते भावार्थशून्यत्वं स्थापनारूपमपि त्रिष्वपि समानम्,