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________________ ६४ शब्दाभिधाय्यर्थप्रतिक्षेपी शब्दनयाभासः । अर्पितमभिदधानो saर्पितं प्रतिक्षिपन्नर्पितनयाभासः । अनर्पितमभिदधदर्पितं प्रतिक्षिपन्ननर्पिताभासः । लोकव्यवहारमभ्युपगम्य तच्च प्रतिक्षेपी व्यवहाराभासः । तचमभ्युपगम्य व्यवहारप्रतिक्षेपी निश्चयाभासः ज्ञानमभ्युपगम्य- क्रियाप्रतिक्षेपी ज्ञाननयाभासः । क्रियामभ्युपगम्य ज्ञानप्रतिक्षेपी क्रियान्याभास इति । अर्थः- अर्थ का अभिधान करनेवाला और शब्द का निषेध करने वाला अभिप्राय अर्थनयाभास है । शब्द का अभिधान करने वाला और अर्थ का निषेध करनेवाला शब्दनयाभास है । अर्पित अर्थात विशेष को स्वीकार करनेवाला और अनर्पित अर्थात सामान्य का निषेध करनेवाला अर्पित नयाभास है । अनर्पित का स्वीकार करनेवाला और अर्पित का निषेध करनेवाला अनर्पित नयाभास है । लोक व्यवहार को स्वीकार करके तत्त्व का निषेध करनेवाला व्यवहाराभास है । तत्त्व को स्वीकार करके व्यवहार का निषेध करनेवाला निश्चयाभास है । ज्ञान को स्वीकार कर के क्रिया का निषेध करनेवाला ज्ञान नयाभास है क्रिया को स्वीकार करके ज्ञान का निषेध करनेवाला क्रिया नयाभास है । इति महा महोपाध्याय श्री कल्याण विजय गणि शिष्यमुख्य पण्डित श्री लाभ विजयगणि शिष्यावतंस पण्डित श्री जीतविजय. गणि सतीर्थ्य पण्डित श्री नय विजयगणि शिष्येण पण्डित पद्मविजय गणि सहोदरेण पण्डित यशोविजयगणिना विरचितायां जैन तर्कभाषायां नय परिच्छेदः । इति महामहोपाध्याय इत्यादि का अर्थ प्रथम परिच्छेद के अन्त में कहा जा चुका है। यहां पर नय परिच्छेद समाप्त हुआ है । फ्र
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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