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________________ ४३ नैगम और समभिरूढ अथवा नैगम और एवंभूत नयके आश्रय से सप्तभङ्गी प्रकट हो सकती है। ___ इसी रीति से जो अनेक सप्तभङ्गियाँ प्रकट होती हैं उन सबमें एक अर्थ में विरोध के बिना विधि और निषेध की कल्पना प्रधानरूप से होती है। इस प्रकार प्रथम और द्वितीय भङ्गों के स्थिर होने पर अन्य भङ्ग भी खड़े हो जाते हैं, इनमें एक भङ्ग कथंचित् अवक्तव्य है। कुछ आचार्यों के अनुसार अवक्तव्य भङ्ग का सप्तभंगी में स्थान तृतीय है और कुछ आचार्यों के मत में चतुर्थ स्थान है। इस अवक्तव्य भङ्ग का प्रथम और द्वितीय भङ्गों के साथ क्रम से अथवा बिना क्रम के संयोग करने पर अन्य भङ्ग प्रकट होते हैं। - इसका एक उदाहरण संग्रह और उसके विरोधी अन्य नयों के आश्रय से प्रकट होनेवाली सप्तभङ्गी में मिलता है। यदि संग्रह के अनुसार घट को किसी अपेक्षा से सत् ही कहा जाय तो अन्य नयों के आश्रय से प्रथम भङ्ग के निषेध करने वाले द्वितीय भङ्ग का उदय होगा । संग्रह नय सत्त्व सामान्य को स्वीकार करता है । उसके अनुसार घट किसी अपेक्षा से सत् ही है। असत् अर्थ का ज्ञान नहीं होता। आकाश का पुष्प असत् है उसका अनुभव नहीं होता। यदि घट असत् हो तो आकाश पुष्प के समान उसका ज्ञान नहीं होना चाहिए । व्यवहार नयका आश्रय लेकर इसका निषेध हो सकता है। व्यवहार नयके अनुसार कहा जायगा घट केवल सत् नहीं। द्रव्यत्व और घटत्व आदि रूप से भी ज्ञान होता है। इसी प्रकार ऋजुसूत्र नयका आश्रय लेकर निषेध की कल्पना होती है। वर्तमान स्वरूप से भिन्न स्वरूप के साथ घट नहीं प्रतीत होता। यदि अन्य रूपों के साथ प्रतीत हो तो घट में अनादि और अनंत सत्ता का अनुभव होना चाहिए । परन्तु घट में अनादि और अनन्त काल के पर्यायों में रहने वाली सत्ता का अनुभव नहीं होता। अतः ऋजुसूत्र नयके अनुसार
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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