________________
१३
होने के कारण यह, नैगम द्रव्य और पर्याय दोनों का प्रकाशक है. परंतु धर्मीका मुख्य रूप से और सुखात्मक धर्मका गौण रूपसे प्रकाशक है, इसलिए प्रमाण से भिन्न है । द्रव्य और पर्याय दोनों का प्रधान भाव से प्रकाशन हो तो ज्ञान प्रमाण होता है ।
मूलम्:- सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रहः- स द्वेधा, परोऽपरश्च ।
अर्थः- केवल सामान्य को ग्रहण करने वाला अभिप्राय संग्रह नय है । वह दो प्रकार का है, पर और अपर ।
विवेचनाः- प्रत्येक अर्थ सामान्यात्मक और विशेषात्मक है । संग्रह सामान्य रूप का ग्रहण करता है । जब सामान्य का ज्ञान होता है तब विशेषों का भी ज्ञान होता है, पर विशेष रूप से नहीं होता । उस काल में विशेष भी सामान्य रूप से प्रतीत होते हैं ।
जो संग्रह अधिक देश में रहता है वह पर है और जो अल्प देश में रहता है वह अपर है ।
मूलम्:- तत्राशेषविशेषेष्वौदासीन्यं भजमानः शुद्धद्रव्यं सन्मात्रमभिमन्यमानः परः संग्रहः । यथा विश्वमेकं सदविशेषादिति । अर्थः- समस्त विशेषों में उदासीन भाव को धारण करनेवाला और केवल शुद्ध द्रव्य सत्को स्वीकार करने वाला पर संग्रह कहा जाता है । जैसे 'विश्व एक सत् रूप से भेद न होने के कारण ।
J
,
--
विवेचनाः- जीव अजीव आदि जितने अर्थ चेतन और अचेतन हैं, वे सब सत्ता रूप सावारण धर्म की अपेक्षा से एक हैं । जीव आदि जितने भी विशेष हैं उनमें किसी का भी स्वभाव असत् नहीं है, सभी