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नव प्रधान रूपसे शब्दात्मक प्रमाण पर आश्रित हैं इसलिए यहां पर प्रमाण पद से श्रुत प्रमाण को लेना चाहिए। अर्थ में अनन्त धर्म हैं। उनमें कुछ धर्म परस्पर विरोधी हैं। इन परस्पर विरोधी धों में से किसी एक धर्म का अपेक्षा के द्वारा ज्ञान हो, तो ही वह ज्ञान नय रूप होता है। शब्द से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसका एक भेद अपेक्षा है इस प्रकार ज्ञान रूप नय अपेक्षात्मक होने से शन्द पर आश्रित है। अपेक्षात्मक ज्ञान को उत्पन्न करनेवाला वचन वाक्य रूप नय है। स्वयं उपाध्याय श्री यशोविजयजी नयोपदेश में नय का लक्षण इस प्रकार करते हैं - सत्त्वाऽसत्त्वायुपेतार्थष्वपक्षा वचनं नयः । (नयामृत तरंगिणी-तरंगिणी तरणि से अलंकृत नयोपदेश-लोक-२, पृष्ठ नं.-६)
अपेक्षा वचन की व्याख्या में लिखते हैं - "अपेक्षावचनं प्रतिनियतधर्मप्रकारकापेक्षाख्यशाबोधजनकं वचनम्, नयबाक्यमित्यर्थः, इदं वचनरूपस्य नयस्य लक्षणम्, ज्ञान रूपस्य "तु नयस्य अपेक्षात्मक शाद्वबोधत्वमेवेति द्रष्टव्यम्" विरोधी धर्मों में अपेक्षा का आश्रय लेकर एक धर्म का ज्ञान नय के स्वरूप के लिए आवश्यक है। प्रत्यक्ष, अनुमान आदि से अर्थ के ज्ञान में इस प्रकार की अपेक्षा आवश्यक नहीं होती। श्रुत प्रमाण एक धर्मी में विरोधी धर्मों का प्रतिपादन करने में समर्थ है। प्रत्यक्ष आदि 'प्रमाण धर्मों का प्रकाशन करते हैं, पर विरोध के साथ नहीं, अतः नय के के लिए श्रुत प्रमाण का आश्रय आवश्यक है।
जब घट है। इस प्रकार कहते हैं तब यह वाक्य ‘घट अनंत धर्मात्मक वस्तु है, सत्त्व उसका एक अंश है' इस तत्त्व का प्रतिपादक है। सत्व के विरुद्ध भसत्त्व धर्मका यह निषेध नहीं करता, इसलिने