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________________ तीसरे भङ्ग में क्रम से सत्त्व और असत्त्व धर्मों का प्रका. शन होता है। चतुर्थ भङ्ग के द्वारा अवक्तव्यत्व का प्रकाशन होता है। जब किसी अपेक्षा से सत्त्व और असत्त्व दोनों धर्म क्रम से प्रतीत होते हैं और अपेक्षा से वक्तव्यत्व भी प्रतीत होता है तब सप्तम भङ्ग होता है। सप्तम भङ्ग में क्रम से सत्त्व और असत्त्व दोनों धर्म प्रकार रूप से प्रतीत होते हैं । इसके कारण पञ्चम और छठे भङ्ग से सप्तम भग का भेद है। पञ्चम भङ्ग में अपेक्षा से केवल सत्व और छठे भङ्ग में केवल असत्त्व प्रकाररूप से प्रतीत होता है । सप्तम भङ्ग से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसमें अपेक्षा के द्वारा सत्त्व और असत्त्व दोनों धर्म प्रकार रूप से प्रतीत होते हैं। [ सप्तभङ्गो के सकलादेश और विकलादेश स्वभावों का निरूपण) मूलम:-सेयं सप्तभागी प्रतिभङ्ग सकला. देशस्वभाषा विकलादेशस्वभावा च । अर्थ:-यह सप्तभङ्गी प्रत्येक भङ्ग में सकलादेश स्वभाववाली और विकलादेश स्वभाववाली है । मूलम:-तत्र प्रमाणप्रतिपन्नानन्तधर्मात्मकवस्तुनः कालादिभिरभेदवृत्तिप्राधान्यादभेदी. पचारादा योगपद्येन प्रतिपादकं वचः सकलादेशः । नयविषयोकृतस्य वस्तुधर्मस्य भेदवृत्तिप्राधान्याद् भंदोपचारावा क्रमेणाभिधायकवाक्यं विकलादेशः।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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