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________________ ३८४ वचन इसके लिये समर्थ नहीं है, अतः अर्थ अवाच्य है । अर्थ, में किसी धर्म का निरूपण एक काल में मुख्य अथवा गौणरूप से हो सकता है। दोनों परस्पर बिरोधी धर्मों को मुख्यरूप से वा गौणरूप से नहीं कहा जा सकता । दोनों धर्म एक अर्थ में एक काल में गौण अथवा मुख्य नहीं हो सकते । अर्थ में इस प्रकार का स्वरूप असंभव है, इसलिये उसका वाचक पद भी नहीं है । वाचक से रहित होनेके कारण अर्थ अवक्तव्य है । अवक्तव्य भङ्ग का निरूपण अनेक प्रकार से हो सकता है । अर्थ में स्वरूप की अपेक्षा से अकान्त सत्त्व ही नहीं है और पर - रूप की अपेक्षा से अकान्त असत्त्व ही महीं है। केवल सत्त्व अथवा असत्त्व को मामकर किसी शब्द से अर्थ का कथन नहीं हो सकता, अतः अर्थ अवाध्य है । केवल सत्त्व अथवा केवल असत्त्व सर्वथा अविद्यमान है इसलिए उसका कोई वाचक नहीं हो सकता । यदि अर्थ सब प्रकार से सत् ही हो, तो उसकी किसी अन्य अर्थ से व्यावृत्ति नहीं हो सकेगी । वह महासामान्य सत्ता के समान सब स्थानों पर रहेगा इसलिये विशेषरूप में प्रतीत न हो सकेगा । यदि घट सर्वथा सत् हो, तो सभी स्थानों पर सत्रूप में ही प्रतीत होना चाहिये । घटरूप में उसकी प्रतीति नहीं होनी चाहिये । घट जब प्रतीत होता हैतब वृक्ष आदि अर्थों से भिन्न आकार में ही प्रतीत होता है, इसलिये घट-घटरूप से हो सत् है । इसी प्रकार यदि घट आदि अर्थ असतरूप हो, तो वृक्ष आदिके रूपसे जिस प्रकार अविद्यमान है इस प्रकार अपने रूपसे भी अविद्यमान होने के कारण शशशग के समान तुच्छ हो जाना चाहिये एकान्त
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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