SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 418
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६६ से सम्बन्ध उत्पन्न हो जाते हैं । आकाश-धर्मास्तिकाय-- अधर्मास्सिकाय-आदि द्रव्य व्यापक हैं। उनका समस्त द्रव्यों के साथ सम्बन्ध है। जब कोई घट आदि द्रव्य उत्पन्न होता है तब उसका आकाश आदि व्यापक द्रव्यों के साथ सम्बन्ध हो जाता है। व्यापक द्रव्यों का समस्त द्रव्यों के साथ सम्बन्ध है इसलिए घट का आकाश आदिके द्वारा समस्त द्रव्यों के साथ परंपरा से सम्बन्ध हो जाता है, इस प्रकार घट के अनन्त सम्बन्ध हैं सम्बन्ध घट के धर्म हैं। धर्म का धर्मों के साथ भेदाभेद है। रूप, स्पर्श आदिके साथ घट का जिस प्रकार भेदाभेद है इस प्रकार अनन्त सम्बन्धरूप धर्मों के साथ भी भेदा भेद है। घट, रूप-स्पर्शाद्यात्मक है और अनन्त सम्बन्धों के साथ अभेद होनेके कारण अनन्तधर्मात्मक भी है । मयूर के अंडे के रसमें जिस प्रकार शिर, ग्रीवा, चोंच, नेत्र आदि अनेक अवयवों की उत्पत्ति एक साथ हो जाती है इस प्रकार अनेक द्रव्यों के साथ एक द्रव्य के अनेक सम्बन्धों की उत्पत्ति भी एक क्षण में हो जाती है। यदि पहले क्षण में ही उत्पत्ति न हो तो पीछे भी कभी उत्पत्ति नहीं होनी चाहिये। ___इसके अतिरिक्त शीत, उष्ण आदिके सम्बन्ध से भी द्रव्यों में प्रतिक्षण अनेक विकार उत्पन्न होते रहते हैं। वे सब कभी नवीन और कभी प्राचीन रूप में प्रतीत होते हैं। यदि प्रतिक्षण इन विकारों की उत्पत्ति न हो तो क्रम से नवीन और प्राचीनरूप में प्रतीति नहीं होनी चाहिये। इस प्रकार घट आदि प्रत्येक द्रव्य अनन्त धर्मात्मक सिद्ध होता है। अनु. मान के द्वारा अर्थ के अनन्त धर्मात्मक सिद्ध होने पर भी प्रत्यक्ष से किसी अर्थ का जब ग्रहण होता है तब कुछ धर्मों का ही प्रत्यक्ष होता है। अनन्त धर्मों का इन्द्रियों से प्रत्यक्ष
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy